________________
३१२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् धातु को वृद्धि होती है। कीर्यते विविधं क्षिप्यते य: स:-कारः तण्डुलादिः । यहां कर्म कारक में घञ्' प्रत्यय है।
विशेष-परिमाण-यहां परिमाण से संख्या का ग्रहण किया जाता है, प्रस्थ (सेर) आदि का नहीं। संख्या भी एक परिमाण है।
घञ्
__ (३) इङश्च ।२१। प०वि०-इङ: ५ १ च अव्ययपदम्। स०-घञ् इत्यनुवर्तते।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानाद् इङ्-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-अधीयते य: स:-अध्याय: । उपेत्याधीते यस्मात् स:-उपाध्यायः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (इङ:) इङ् धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है।
उदा०-अधीयते य: स:-अध्याय: । जो पढ़ा जाता है वह-अध्याय। उपेत्याधीते यस्मात् स:-उपाध्याय: । शिष्य जिसके समीप जाकर पढ़ता है वह-उपाध्याय।
सिद्धि-(१) अध्याय: । अधि+इड्+घञ् । अधि+ऐ+अ। अधि+आय्+अ । अध्य्+आय। अध्याय+सु। अध्याय:।
यहां नित्य अधि उपसर्गपूर्वक 'इङ् अध्ययने (अ०दा०) धातु से इस सूत्र से घञ्' प्रत्यय है। 'एरच्' (३।३।५६) से 'अच्' प्रत्यय प्राप्त था। 'अचो णिति' (७।२।११५) से 'इ' धातु को वृद्धि होती है। एचोऽयवायावः' (६।१।७५) से 'आय' आदेश होता है। 'इको यणचि (६ १/७४) से 'यण' आदेश होता है।
(२) उपाध्याय: । उप और अधि उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त इङ्' धातु से पूर्ववत् । उप+अध्याय: उपाध्याय:।
घञ्
(४) उपसर्गे रुवः।२२। प०वि०-उपसर्गे ७१ रुव: ५।१ । अनु०-घञ् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च उपसर्गे रुवो धातोर्घञ् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org