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________________ २८८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (१३) नद्धी। ‘णह बन्धने (दि०उ०) 'नहो ध:' (८।२।३४) 'नह्' धातु के ह को ध् आदेश, झषस्तथोर्थोऽध:' (८।२।४०) से 'त्र' प्रत्यय के त् को 'ध्' आदेश और 'झलां जश् झशि' (८।४।५२) से पूर्व ध् को जश् द् आदेश होता है। स्त्रीलिङ्ग में 'षिद्गौरादिभ्यश्च' (४।१।४१) से डीष् प्रत्यय है। ष्ट्रन् (३) हलसूकरयोः पुवः ।१८३ । प०वि०-हल-सूकरयो: ७।२ पुव: ५।१। स०-हलश्च सूकरश्च तौ-हलसूकरौ, तयो:-हलसूकरयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-ष्ट्रन्, करणे इति चानुवर्तते। अन्वय:-करणे पुवो धातोर्वर्तमाने ष्ट्रन् हलसूकरयोः । अर्थ:-करणे कारके विद्यमानात् पू-धातो: परो वर्तमाने काले ष्ट्रन् प्रत्ययो भवति, तच्च करणं हलसूकरयोरवयवो भवति । उदा०-पवते/पुनाति वा येन तत्-पोत्रम् । हलस्य पोत्रम् । सूकरस्य पोत्रम् । मुखमित्यर्थः। आर्यभाषा-अर्थ-(करणे) करण कारक में विद्यमान (पुव:) पू (धातो:) धातु से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (ष्ट्रन्) ष्ट्रन् प्रत्यय होता है, यदि वह करण (हलसूकरयो:) हल और सूअर का अङ्ग हो। उदा०-पवते पुनाति वा येन तत् पोत्रम् । हलस्य पोत्रम् । भूमि को शुद्ध करने का साधन, हल का मुख फाल। सूकरस्य पोत्रम् । मल को शुद्ध करने का साधन सूअर के मुख का अग्रभाग। 'मुखाग्रे क्रोडहलयो: पोत्र'मित्यमरः ।। सिद्धि-पोत्रम् । यहां पूङ् पवने (भ्वा०आ०) और पूञ् पवने (या उ०) धातु से इस सूत्र से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७ १३ १८४) से 'पू' धातु को गुण होता है। यहां पू' कहने से उपर्युक्त दोनों धातुओं का समानता से ग्रहण किया जाता है। इत्र: (१) अर्तिलूधूसूखनसहचर इत्रः ।१८४। प०वि०-अर्ति-लू-धू-सू-खन-सह-चर: ५।१ इत्र: १।१।। स०-अर्तिश्च लूश्च धूश्च सूश्च खनश्च सहश्च चर् च एतेषां समाहार:-अर्ति०चर्, तस्मात्-अर्तिचर: (समाहारद्वन्द्वः)। जाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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