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________________ २८७ तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः शत्रु की हिंसा का साधन (शस्त्र)। (यु) यौति येनेति योत्रम् । द्रव्य को मिश्रित करने का साधन (पलटा आदि)। (युज) युनक्ति येनेति योक्त्रम् । बैल आदि को जोड़ने का साधन (जोत)। 'आबन्धो योत्रं योक्त्रमित्यमरः । (स्तु) स्तौति येनेति स्तोत्रम् । देवता आदि की स्तुति का साधन (शिवस्तोत्र आदि)। (तुद) तुदति येनेति तोत्रम् । व्यथा का साधन (बैल आदि के ताडनादि का साधन सांटा पैनी आदि)। 'प्राजनं तोदनं तोत्र'मित्यमरः। (सि) सिनाति येनेति सेत्रम् । बन्धन का साधन (रस्सी आदि)। (सिच) सिञ्चति येनेति सेक्त्रम् । भूमि आदि को सींचने का साधन (मशक आदि)। (मिह) मेहति येनेति मेद्रम् । गर्भ में वीर्य-सेचन का साधन (पुरुष का लिङ्ग)। (पत) पतति येनेति पत्रम् । देशान्तर में गमन का साधन (वाहनमात्र)। (दश) दंशति ययेति दंष्ट्रा । खाद्यपदार्थ को काटने का साधन (दाढ)। (नह) नह्यति ययेति नद्धी । बन्धन का साधन (चमड़े की रस्सी)। जनभाषा में 'बादी' अथवा 'जोत' कहते हैं। त्रीणि चर्मरज्जो:'नधी वधी वरत्रा स्या'दित्यमरः । सिद्धि-(१) दात्रम् । यहां 'दाप लवने (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय है। (२) नेत्रम् । णीञ् प्रापणे' (भ्वा०उ०) । सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७ ।३ १८४) से नी' धातु को गुण होता है। (३) 'शस हिंसायाम्' (भ्वा०प०)। (४) योत्रम् । यु मिश्रणे' (अदा०प०) पूर्ववत् गुण होता है। (५) योक्त्रम्। 'युजिर् योगे' (रुधा०प०) पुगन्तलघूपधस्य च' (७ ।३।८५) से 'युज्' धातु को लघूपध गुण होता है। 'चो: कुः' (८।२।३०) से युज् के 'ज्' को कुत्व ग् और 'खरि च' (८।४।५४) से ग को चर् क् होता है। (६) स्तोत्रम्। 'ष्टुञ स्तुतौ' (अदा०3०) पूर्ववत् गुण होता है। (७) तोत्रम् । तुद व्यथने (तु०प०) पूर्ववत् गुण होता है। (८) सेत्रम् । षिञ् बन्धने (जया०उ०)। (९) सेक्त्रम् । पिचिर् क्षरणे' (रुधा०उ०) । (१०) मेद्रम् । 'मिह सेचने' (भ्वा०प०)। मिह+ष्ट्रन् । मिह+त्र । मेढ्+द्र। मे०+द्र। मेढ़+सु। मेढ़म्। हो ढः' (८।२।३१) से धातु के ह को द आदेश, 'झषस्तथोर्थोऽध:' (८।२।४०) से त्र' के त् को ध् आदेश, 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४०) प्रत्यय के ध् को टुत्व द होता है। दो ढे लोप:' (८।३।१३) से पूर्व द् का लोप होता है। (११) पत्रम् । 'पत्लु गतौ' (भ्वा०प०)। (१२) दंष्ट्रा । दश दशने' (भ्वा०प०)। 'व्रश्चभ्रस्ज०' (८।२।३६) से दंश् के श् को ष् और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४०) से 'त्र' प्रत्यय के त् को ट् होता है। 'अजाद्यतष्टा (४।१।४) से स्त्रीलिङ्ग में टाप् प्रत्यय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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