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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः (२) भा:। 'भासू दीप्तौ' 'क्विप्' प्रत्यय का पूर्ववत् सर्वहारी लोप होकर 'भास्' के 'स' को सजषो रु' (८।२।६६) से रुत्व और रु को खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८।३।१५) से विसर्जनीय आदेश होता है।
(३) धूः । 'धुर्वी हिंसार्थ:' (भ्वा०प०) यहां राल्लोप:' (६।४।२१) से धात के व का लोप और 'र्वोरुपधाया: दीर्घ इक:' (८।२७६) से इक् (उ) को दीर्घ होता है।
(४) विद्युत् । वि-उपसर्गपूर्वक द्युत दीप्तौं' (भ्वा०आ०)।
(५) ऊर्छ। ऊर्ज बलप्राणनयो:' (चु०प०) चो: कुः' (८।२।३०) से ज् को कुत्व ग और वाऽवसाने (८।४।५५) से ग् को चर् क् होता है।
(६) पू:। पृ पालनपूरणयोः' (क्रया०प०) उदोष्ठ्यपूर्वस्य' से ऋ के स्थान में उ-आदेश, उरण रपरः' (१।१।५०) से रपरत्व और र्वोरुपधाया दीर्घ इकः' (८।२७६) से दीर्घ होता है।
(७) जू: । जु वेगे' सौत्र धातु को निपातन से दीर्घ होता है।
(८) प्रावस्तुत् । यहां 'ग्राव' शब्द उपपद होने पर 'ष्टुञ स्तुतौ' (अदा०उ०) धातु से क्विप्' प्रत्यय है। 'हस्वस्य पिति कृति तुक्' (६।१।६९) से तुक्' आगम होता है।
क्विप्
(२) अन्येभ्योऽपि दृश्यते।१७८ । प०वि०-अन्येभ्य: ५ ।३ अपि अव्ययपदम्, दृश्यते क्रियापदम् । अनु०-क्विप् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अन्येभ्योऽपि धातुभ्यो वर्तमाने क्विप् दृश्यते तच्छीलादिषु।
अर्थ:-अन्येभ्योऽपि धातुभ्य: परो वर्तमाने काले क्विप् प्रत्ययो दृश्यते, तच्छीलादिषु कर्तृषु।
उदा०-(भिद्) भित्। (छिद्) छित्। (युज्) युक् इत्यादिकम्।
आर्यभाषा-अर्थ-(अन्येभ्यः) अन्य-पूर्वोक्त से भिन्न (धातोः) धातुओं से (अपि) भी परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (क्विप्) क्विप् प्रत्यय (दृश्यते) देखा जाता है।
उदा०-(भिद्) भित् । भेदन में कुशल। (छिद्) छित् । छेदन में कुशल। (युज्) युक् । योगधर्मा।
सिद्धि-(१) भित्। यहां भिदिर् विदारणे (रुधा०प०) धातु से इस सूत्र से क्विप्' प्रत्यय है। 'विप्' का वरप्रक्तस्य' (६।१।६५) से सर्वहारी लोप होता है। भिद्+सु। 'हल्ड्याब्ल्यो०' (६।१।६६) से सु' का लोप होता है। वाऽवासने' (८।४।५५) से 'भिद्' के 'द्' को चर् 'त्' होता है।
(२) छित् । छिदिर् द्वैधीकरणे' (रुधा०प०) पूर्ववत् ।
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