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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् स०-आच्च ऋश्च गमश्च हनश्च जन् च एतेषां समाहार:आदृगमहनजन् तस्मात्-आदृगमहनजन: (समाहारद्वन्द्व:)।
__ अन्वय:-छन्दसि आदृगमहनजनो धातोर्वर्तमाने किकिनौ लिट् च तच्छीलादिषु।
अर्थ:-छन्दसि विषये आकारान्तेभ्य ऋकारान्तेभ्यो गमहनजनिभ्यश्च धातुभ्य: परो वर्तमाने काले कि-किनौ प्रत्ययौ भवत:, लिड्वच्च कार्य भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु। ___उदा०-(आत्) पपि: सोमम्, ददिर्गा: (ऋ० ६ ।२३ ।२४)। (ऋकारान्तः) मित्रावरुणौ ततुरिः । दूरे ह्यध्वा जगुरि: (ऋ० १० ११०८।१)। (गम:) जग्मियुवा (ऋ० ७।२०।१)। (हन:) जजिर्वृत्रम्। (जन:) जज्ञिर्बीजम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (आद्जन:) आकारान्त, ऋकारान्त और गम, हन, जन् (धातो:) धातुओं से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (किकिनौ) कि और किन् प्रत्यय होते हैं (च) और इनको (लिट) लिट् लकार के समान द्विवचन रूप कार्य होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो।
उदा०-(आकारान्त) पपि: सोमम्, ददिर्गाः (ऋ० ६ ।२३।२४)। सोमपानशील। गोदानधर्मा। (ऋकारान्त) मित्रावरुणौ ततुरिः । ततुरि-तरणशील। (गम) दूरे ह्यध्वा जगुरिः । जगुरि=निगरणशील। (गम) जग्मियुर्वा (ऋ० ७ ।२०।१)। गमनशील युवक। (हन) जनिर्वत्रम् । वृत्र के हनन में कुशल । (जन्) जज्ञिर्बीजम् । बीज के उत्पादन में साधु ।
सिद्धि-(१) पपिः। यहां 'पा पाने (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'कि' प्रत्यय है। 'आतो लोप इटि च' (६।४।६४) से 'पा' धातु के आ का लोप होता है। द्विर्वचनेऽचि (१११५८) से आ-लोप को स्थानिवत् मानकर 'पा' धातु को द्वित्व होता है।
(२) ददिः । डुदान दाने (जु०उ०) पूर्ववत् ।
(३) ततुरिः। तृ प्लवनसन्तरणयो:' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र कि प्रत्यय है। बहुलं छन्दसि' (७।१।१०३) से उत्व और उरण रपरः' (१।१५०) से रपरत्व होता है। द्विवचनेऽचि' (१।१।५८) से पूर्ववत् स्थानिवद्भाव मानकर तृ' शब्द को द्वित्व होता है। उरत्' (७।४।६६) से अभ्यास के ऋ को 'अ' आदेश होता है।
(४) जगुरिः । निगरणे (तु०प०)।
(५) जग्मि: । गम्लु गतौ (भ्वा०प०) 'गमहनजन०' (६।४।९८) से 'गम्' धातु का उपधा-लोप होता है।
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