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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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उ:
(३) क्याच्छन्दसि।१७०। प०वि०-क्यात् ५।१ छन्दसि ७१। अनु०-उरित्यनुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि क्याद् धातोर्वर्तमाने उ:, तच्छीलादिषु ।
अर्थ:-छन्दसि विषये क्य-प्रत्ययान्ताद् धातो: परो वर्तमाने काले उ: प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु। 'क्यात्' इत्यत्र-क्यच-क्यष्क्यङ्प्रत्ययानां सामान्येन ग्रहणं क्रियते।
उदा०-(क्यच्) मित्रयुः। देवयु: (ऋ० ४।१।७)। (क्यष्) संस्वेदयुः। (क्यङ्) सुम्नयु: (ऋ० ७।१।१०)।
आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (क्यात्) क्य-प्रत्ययान्त (धातो:) धातु से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (उ:) उ-प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा वा तत्साधुकारी हो। यहां क्यात्' से क्यच्, क्य, क्पङ् प्रत्ययो का समानता से ग्रहण किया जाता है।
उदा०-- (क्यच्) मित्रयुः । अपने मित्र का इच्छुक। देवयुः' (ऋ० ४।१।७) अपने देवता का इच्छुक। (क्या) संस्वेदयुः। संस्वेदनशील (पसीजनेवाला)। (क्यङ्) सुम्नयुः (ऋ० ७।१।१०)। सुम्न-उत्तम अभ्यासी के समान आचरणधर्मा।
सिद्धि-(१) मित्रयः। यहां प्रथम 'मित्र' शब्द से 'सुप आत्मन: क्यच् (३।१८) से क्यच्' प्रत्यय होता है। क्यच्' प्रत्यय परे होने पर क्यचि च' (७।४।३३) से प्राप्त ईत्व का न च्छन्दस्यपुत्रस्य (७।४।३५) से प्रतिषेध होता है। क्यजन्त मित्रय' धातु से इस सूत्र से 'उ' प्रत्यय है। मित्रय+उ। मित्रयु+सु । मित्रयुः । अतो लोप:' (६।४।४८) से 'अ' लोप होता है। देव शब्द से-देवयुः ।
(२) संस्वेदयः । यहां प्रथम संस्वेद' शब्द से लोहितादिडाजभ्य: क्यष' (३।११३) से क्यष् प्रत्यय होता है। क्यषन्त संस्वेदय' धातु से इस सूत्र से 'उ' प्रत्यय है।
(३) सुम्नयुः। यहां प्रथम सुम्न' शब्द से कर्तुः क्यङ् सलोपश्च' (३।१।११) से 'क्यङ्' प्रत्यय होता है। क्यङन्त सुम्नय' धातु से इस सूत्र से उ' प्रत्यय है। किः+किन्
(१) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च।१७१।
प०वि०-आत्-ऋ-गम-हन-जन: ५ ६१ कि-किनौ १।२ लिट् ११ च अव्ययपदम्।
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