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________________ तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः २६६ आर्यभाषा-अर्थ-(दा०सद:) दा, धेट, सि, शद, सद् (धातो:) धातुओं से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (रु:) रु-प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा वा तत्साधुकारी हो। __उदा०-(दा) दारुः । दानधर्मा। (धेट) धारुः । पानशील। (सि) सेरुः बन्धनशील/बन्धन में कुशल। (शद) शगुः । तीक्ष्ण करने में कुशल। (सद्) सद्रुः । अवसादशील, अवसाद शोक । सिद्धि-(१) दारुः। यहां डुदाञ् दाने (जु०उ०) धातु से इस सूत्र से 'ह' प्रत्यय है। (२) धारुः । 'धेट पाने' (भ्वा०प०)। आदेच उपदेशेऽशिति' (६।१।४४) से धातु को आत्त्व होता है। (३) सेरुः । पिञ् बन्धने' (स्वा०उ०)। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'सि' धातु को गुण होता है। (४) शगुः । शलु शातने (भ्वा०प०) {तीक्ष्ण करना)। (५) सद्भुः । षद्लू विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०)। क्मरच् (१) सृघस्यदः क्मरच् ।१६०। प०वि०-सृ-घसि-अद: ५।१ क्मरच् १।१। स०-सृश्च घसिश्च अद् च एतेषां समाहार:-सृघस्यद्, तस्मात्सृघस्यद: (समाहारद्वन्द्वः)। अन्वय:-सृघस्यदो धातोर्वर्तमाने क्मरच्, तच्छीलादिषु । अर्थ:-सृघस्यद्भ्यो धातुभ्य: परो वर्तमाने काले क्मरच् प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु। उदा०-(स:) सृमरः । (घसि:) घस्मरः। (अद्) अमरः । आर्यभाषा-अर्थ-(सृघस्यदः) सू, घसि, अद् (धातो:) धातुओं से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (क्मरच्) क्मरच् प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा वा तत्साधुकारी हो। उदा०-(स) सृमरः । गतिशील (मृगविशेष)। (घसि) घस्मरः । भक्षणशील (खाऊ)। (अद्) अगरः । भक्षणशील (खाऊ)। सिद्धि-(१) सृमरः । यहां सृ गतौ (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से क्मरच्’ प्रत्यय है। क्मरच्' प्रत्यय के कित्' होने से सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८५) से प्राप्त गुण का विडति च' (१।१।५) से प्रतिषेध होता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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