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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-प्र-उपसर्गपूर्वाद् जु-धातोः परो वर्तमाने काले इनिः प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु । उदा० प्रजवी । प्रजविनौ । प्रजविन: । २६६ आर्यभाषा - अर्थ - (प्रजो ) प्र-उपसर्गपूर्वक जु (धातो: ) धातु से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (इनि:) इनि - प्रत्यय होता है, यदि इस धातु का कर्ता ( तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो । उदा०- - (प्र+जु) प्रजवी । प्रकृष्ट वेगशील (तकाजा करनेवाला) । सिद्धि-प्रजवी । प्र+जु+इनि। प्र+जो इन्। प्रजविन्+सु । प्रजवीन्+सु । प्रजवी । यहां 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'जु वेगे' इस सौत्र धातु से इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय होता है । 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'जु' धातु को गुण, 'सौ च' (६।४।१३) से दीर्घ, 'हल्डयाब्भ्यो० ' ( ६ |१|६६ ) से 'सु' का लोप और 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (८/२/७ ) से 'न्' का लोप होता है। इनि:(२) जिदृक्षिविश्रीण्वमाव्यथाभ्यमपरिभूप्रसूभ्यश्च ॥ १५७ ॥ प०वि० - जि-दृ-क्षि- विश्रि- इण् वम- अव्यथ-अभ्यम - परिभूप्रसूभ्य: ५ | ३ च अव्ययपदम् । सo - जिश्च दृश्च विनिश्च इण् च वमश्च अव्यथश्च अभ्यमश्च परिभूश्च प्रसूश्च ते जि०प्रसुवः, तेभ्य:- जि० प्रसूभ्यः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु० - इनिरित्यनुवर्तते । अन्वयः - जि० प्रसूभ्यो धातुभ्यश्च वर्तमाने इनि:, तच्छीलादिषु । अर्थ:-जि-प्रभृतिभ्यो धातुभ्योऽपि परो वर्तमाने काले इनिः प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु । उदा०- (जि) जयी । (दृ) दरी । ( क्षिः) क्षयी (वि + श्रि ) विश्रयी । (इण्) अव्ययी (वमः ) वमी। (अव्यथः) अव्यथी। (अभ्यमः ) अभ्यमी । (परिभूः) परिभवी । (प्रसूः) प्रसवी । 1 आर्यभाषा-अर्थ- (जि०प्रसूभ्यः) जि, दृ, क्षि, वि+श्रि, इणू, वम, अव्यथ, अभ्यम, परिभू, प्रसू (धातोः) धातुओं से परे (च) भी (इनिः ) इनि-प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता ( तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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