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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उकञ् प्रत्यय होता है, यदि इनका कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो।
उदा०-(लष) अपलाषुकं वृषलसङ्गतम् । वृषल-नीच की संगति कामना के योग्य नहीं होती है। (पत) प्रपातुका गर्भा भवन्ति । गर्भ पतनशील होते हैं। (पद) उपपादकं सत्त्वम् । द्रव्य उपपत्तिशील होता है। (स्था) उपस्थायुका एनं पशवो भवन्ति। पशु इसके प्रति उपस्थितिशील हैं। (भू) प्रभावुकमन्नं भवति । अन्न सामर्थ्यशील होता है। (वृष) प्रवर्युका: पर्जन्या: । बादल वर्षणशील हैं। (हन:) आघातुकं पाकलिकस्य मूत्रम् । ज्वर रोग से पीडित हाथी का मूत्र घातक होता है। पाकल: हाथी का ज्वर (आप्टेकोश)। (कम) कामुका एनं स्त्रियो भवन्ति । स्त्रियां इसके प्रति कामनाशील हैं। (गम) आगामुकं वाराणसी रक्ष आहुः । वाराणसी के प्रति आगमनशील को राक्षस कहते हैं। (पापी लोग पाप से मुक्ति के लिये वाराणसी जाते हैं, वे पापी होने से राक्षस के तुल्य हैं)। (शृ) किंशारुकं तीक्ष्णमाहुः । किंशारु–यव धान आदि की बाल का अग्रभाग तीक्ष्ण होता है। किंशारु: सस्यशूकं स्या'दित्यमरः।
सिद्धि-(१) अपलाषुकः । यहां अप उपसर्गपूर्वक लष कान्तौ' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से उकञ्' प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से लष्' धातु को उपधावृद्धि होती है।
(२) प्रपातुकः । 'प्र' उपसर्गपूर्वक पत्लु गतौ' (भ्वा०प०), (३) उपपादुकः । 'उप' उपसर्गपूर्वक पद गतौ' (दि०आ०)।
(४) उपस्थायुकः । उप' उपसर्गपूर्वक छा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०)। 'आतो युक् चिण् कृतो:' (७।३।३३) से 'युक्’ आगम होता है।
(५) प्रभावुकः । 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०)। 'अचो मिति' (७।२।११६) से 'भू' को वृद्धि और 'एचोऽयवायाव:' (६।११७५) से 'आव्' आदेश होता है।
(६) प्रवर्षुकः । 'प्र' उपसर्गपूर्वक वृष सेचने' (भ्वा०प०)। 'पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से वृष्' को लघूपध गुण होता है।
(७) आघातुक: । आङ् उपसर्गपूर्वक हन् हिंसागत्यो:' (अदा०प०) हो हन्तेगिन्नेषु (७।३।५४) से हन्' धातु के ह' को कुत्व 'घ' और 'हनस्तोऽचिण्णलो:' (७।३।३२) से हन्' धातु के न्’ को त्' आदेश होता है। अत उपधाया:' (७।२।११६) से उपधावृद्धि होती है।
(८) आगामुकः । आङ् उपसर्गपूर्वक 'गम्तृ गतौं' (भ्वा०प०)।
(९) किंशारुकः । किम् उपपद होने पर शृ हिंसायाम् (क्रया०प०)। 'अचो मिति (७।२।११५) से 'शृ' धातु को वृद्धि होती है।
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