________________
२६०
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्वय:-जु०पदो धातोर्वर्तमाने युच् तच्छीलादिषु।
अर्थ:-जु-प्रभृतिभ्यो धातुभ्य: परो वर्तमाने काले युच् प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु।
उदा०-(जुः) जवनः। (चक्रम्य:) चङ्क्रमणः। (दन्द्रम्य:) दन्द्रमणः । (सृ:) सरण: । (गृधि) गर्धन: । (ज्वल:) ज्वलनः । (शुच:) शोचन: । (लष:) लषणः। (पत:) पतन: । (पद:) पदनः।
आर्यभाषा-अर्थ-(जु०पद:) जु, चक्रम्य, दन्द्रम्य, सृ, गृधि, ज्वल, शुच, लष, पत, पद (धातो:) धातुओं से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (युच्) युच् प्रत्यय होता है, यदि इनका कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो।
उदा०-(जु) जवन: । वेगशील। (चक्रम्य) चङ्क्रमणः । कुटिल चलनशील। (दन्द्रम्य) दन्द्रमणः । कुटिल गतिशील। (स) सरणः । संसरणशील। (ज्वल) ज्वलनः । दीप्तिधर्मा। (शुच) शोचनः । शोकधर्मा। (लष) लषण: । कान्तिधर्मा। (पत) पतनः । पतनशील। (पद) पदनः । गतिशील।
सिद्धि-(१) जवनः। यहां जु वेगे' इस सौत्र धातु से इस सूत्र से 'युच्' प्रत्यय होता है। 'युवोरनाकौ' (७।१।१) से 'यु' के स्थान में 'अन' आदेश और सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।२।८४) से जु' धातु को गुण होता है।
(२) चक्रमण: । क्रम्+यङ्। क्रम्+क्रम्+य। क+क्रम्+य। क नुक्+क्रम्+य। च न्+क्रम्+य। चक्रम्+य। चड्+क्रम्+य। चक्रम्य+युच् । चक्रम्य्+अन । चक्रम्+अण। चङ्क्रमण+सु। चङ्क्रमणः।
यहां प्रथम क्रमु पादविक्षेपे' (दि०प०) धातु से नित्यं कौटिल्ये गतौ' (३।१।२३) से यङ् प्रत्यय होता है। यङन्त ‘चङ्क्रम्य' धातु से इस सूत्र से 'युच्' प्रत्यय है। यङ्' प्रत्यय परे होने पर सन्यडो:' (६।१।९) से क्रम्' धातु को द्वित्व, नुगतोऽनुनासिकान्तस्य' (७।४।७५) से अभ्यास को नुक्' आगम, नश्चापदान्तस्य झलि' (८।३।२४) से न्' को अनुस्वार और 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' (८।४।५७) से अनुस्वार को परसवर्ण ड् होता है। कुहोश्चः' (७।४।६२) से अभ्यास के 'क्' को 'च' आदेश होता है। चक्रम्य' से 'युच्' प्रत्यय करने पर अतो लोप:' (६।४।४८) से 'अ' का लोप और यस्य हलः' (६।४।४९) से 'य' का लोप होता है। 'अट्कुप्वानुम्व्यवायेऽपि (८।४।२) से णत्व' हो जाता है।
(३) दन्द्रमणः । 'द्रम गतौ' (भ्वा०प०) पूर्ववत् । (४) सरणः । सृ गतौ (भ्वा०प०)। (५) गर्धनः । गृधु अभिकाङ्क्षायाम्' (दि०प०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org