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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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घिनुण
(५) प्रे लपसृद्रुमथवदवसः ।१४५ । प०वि०-प्रे ७१ लप-सृ-द्रु-मथ-वद-वस: ५।१।
स०-लपश्च सृश्च द्रुश्च मथश्च वदश्च वस् च एतेषां समाहार:लपसूद्रुमथवदवस, तस्मात्-लपसूद्रुमथवदवस: (समाहारद्वन्द्वः) ।
अनु०-घिनुण् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-प्रे लपसुद्रुमथवदवसो धातोर्वर्तमाने घिनुण, तच्छीलादिषु ।
अर्थ:-प्र-उपसर्गे उपपदे लपसूद्रुमथवदवसिभ्यो धातुभ्यः परो वर्तमाने काले घिनुण् प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु।
उदा०-(लप:) प्रलापी। (सः) प्रसारी। (द्रुः) प्रदावी। (मथ:) प्रमाथी। (वद:) प्रवादी। (वस:) प्रवासी।
आर्यभाषा-अर्थ-(प्र) प्र-उपसर्ग उपपद होने पर (लप०वस:) लप, सृ. द्रु, मथ, वद, वस (धातो:) धातुओं से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (घिनुण) घिनुण् प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो।
___ उदा०-(लप) प्रलापी। प्रलापशील (बैंडनेवाला)। (स) प्रसारी। प्रसरणशील (फैलनेवाला)। (इ) प्रदावी। द्रवणशील (पिघलनेवाला)। (मथ) प्रमाथी। मन्थन में कुशल। (वद) प्रवादी। निन्दाशील। (वस) प्रवासी। प्रवासधर्मा।
सिद्धि-(१) प्रलापी। यहां प्र' उपसर्गपूर्वक लप व्यक्तायां वाचिं' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'घिनुण्' प्रत्यय है। अत उपधाया:' (७।२।११६) से 'लप्' धातु को उपधावृद्धि होती है।
(२) प्रसारी। प्र' उपसर्गपूर्वक 'सृ गतौ' (भ्वा०प०) । 'अचो मिति (७।२ ।११५) से वृद्धि होती है।
(३) प्रद्रावी। प्र' उपसर्गपूर्वक 'द्रु गतौ' (भ्वा०प०)। पूर्ववत् वृद्धि होती है। (४) प्रमाथी। प्र' उपसर्गपूर्वक 'मथ विलोडने (भ्वा०प०) । (५) प्रवादी। प्र' उपसर्गपूर्वक वद व्यक्तायां वाचि' (भ्वा०प०)। (६) प्रवासी। प्र' उपसर्गपूर्वक वस निवासे' (भ्वा०प०) ।
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