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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषा - अर्थ - (वौ) वि-उपसर्ग उपपद होने पर (कष० स्रम्भः) कष, लस, कत्थ, स्रम्भ (धातोः) धातुओं से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में ( घिनुण् ) घिनुण् प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता ( तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो ।
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उदा०- -(कष) विकाषी । हिंसा को धर्म माननेवाला (कसाई) । (लस) विलासी । कामक्रीडा में कुशल । ( कत्थ) विकत्थी । श्लाघा = प्रशंसा करने में कुशल । (स्त्रम्भ) विस्रम्भी । विश्वासशील ।
सिद्धि-(१) विकाषी। यहां वि-उपसर्गपूर्वक 'कष हिंसायाम्' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से घिनुण् प्रत्यय है। 'अत उपधायाः' (७/२ । ११६ ) से कष् धातु को उपधावृद्धि होती है।
(२) विलासी । 'लस श्लेषणक्रीडनयो:' (भ्वा०प० ) । (३) विकत्थी । 'कत्य श्लाघायाम् ' ( भ्वा०आ० ) । (४) विस्रम्भी । म्भु विश्वासे ( भ्वा०आ० ) ।
घिनुण्
(४) अपे च लषः । १४४ ।
प०वि०-अपे ७ ।१ च अव्ययपदम्, लष: ५ । १ ।
अनु० - घिनुण् वौ इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - अपे वौ च लषो धातोर्वर्तमाने घिनुण् तच्छीलादिषु । अर्थ:-अप-उपसर्गे वि-उपसर्गे चोपपदे लष् - धातोः परो वर्तमाने काले घिनुण् प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु ।
उदा०- (अप) अपलाषी । (वि) विलाषी ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अपे) अप-उपसर्ग पूर्वक (च) और (वौ) वि-उपसर्ग उपपद होने पर (लषः) लष् (धातोः) धातु से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (घिनुण् ) प्रत्यय होता है, यदि इस धातु का कर्ता ( तच्छील०) तच्छीलवान् तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो ।
उदा०-1 -(अप) अपलाषी । दुरिच्छाशील। (वि) विलाषी । सद्इच्छाशील । सिद्धि - (१) अपलाषी । यहां अप-उपसर्गपूर्वक 'लष कान्तौ (भ्वा०प०) धातु इस सूत्र से 'घिनुण्' प्रत्यय है । 'अत उपधाया:' (७।२1११६) से 'लघ्' धातु को उपधावृद्धि होती है।
(२) विलाषी । वि-उपसर्गपूर्वक 'लष कान्तौं' (भ्वा०प०) ।
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