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________________ तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः २५३ (१२) परिवादी । परि उपसर्गपूर्वक वद व्यक्तायां वाचि' (भ्वा०प०) । (१३) परिमोही। परि उपसर्गपूर्वक 'मुह वैचित्ये' (दि०प०)। (१४) दोषी। दुष वैकृत्ये' (दि०प०)। (१५) द्वेषी। द्विष अप्रीतौ' (अदा०प०) । (१६) द्रोही। द्रुह अभिजिघांसायाम्' (दि०प०)। (१७) दोही। दुह प्रपूरणे (अदा०प०)। (१८) योगी। 'युज समाधौ' (दि०आ०)। (१९) आक्रीडी । आङ् उपसर्गपूर्वक क्रीड विहारे' (भ्वा०प०)। (२०) विवेकी। वि उपसर्गपूर्वक विच्तृ पृथग्भावे' (रुधा०प०)। (२१) त्यागी। त्यज हानौ' (भ्वा०प०)। (२२) रागी। रज रागे' (भ्वा०उ०)। (२३) भागी। 'भज सेवायाम्' (भ्वा०उ०)। (२४) अतिचारी। अति उपसर्गपूर्वक 'चर गतौ' (भ्वा०प०)। (२५) अपचारी। अप उपसर्गपूर्वक चर गतौ' (भ्वा०प०)। (२६) आमोषी। आङ् उपसर्गपूर्वक 'मुष स्तेये (क्रया०प०)। (२७) अभ्याघाती। अभि और आङ् उपसर्गपूर्वक 'हन् हिंसागत्योः' (अदा०प०) से घिनुण् प्रत्यय करने पर हो हन्तेणिन्नेषु' (७।३।५४) से हन्' के 'ह' को कुत्व घ् और हनस्तोऽचिण्णलो:' (७।३।३२) से हन्' के न्' को त्' आदेश होता है। घिनुण (३) वौ कषलसकत्थरम्भः।१४३। प०वि०-वौ ७१ कष-लस-कत्थ-स्रम्भ: ५।१ । स०-कषश्च लषश्च कत्थश्च स्रम्भ च एतेषां समाहार:कषलषकत्थस्रम्भ, तस्मात्-कषलसकत्थस्रम्भः (समाहारद्वन्द्वः)। अनु०-घिनुण् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-वौ कषलसकत्थस्रम्भो धातोर्वर्तमाने घिनुण् तच्छीलादिषु । अर्थ:-वि-उपसर्गे उपपदे कषलसकत्थस्रम्भिभ्यो धातुभ्य: परो वर्तमाने काले घिनुण प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु। __उदा०-(कष) विकाषी। (लस) विलासी। (कत्थ) विकत्थी। (स्रम्भ) विस्रम्भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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