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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२४६ (३) जिष्णुः । यहां जि जये' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से स्नु' प्रत्यय है। क्डिति च' (१।१५) में ग का चत्वंभूत निर्देश मानकर गित् प्रत्यय परे होने पर गुण-वृद्धि का प्रतिषेध मानने से यहां 'जि' धातु को सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से प्राप्त गुण का प्रतिषेध होता है।
(४) भूष्णुः । यहां 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से पस्नु' प्रत्यय है। पूर्ववत् प्राप्त गुण का प्रतिषेध होता है।
क्नु:
(२) त्रसिगृधिधृषिक्षिपेः क्नुः।१४०। प०वि०-त्रसि-गृधि-धृषि-क्षिपे: ५।१ क्नु: ११ ।
स०-त्रसिश्च गृधिश्च धृषिश्च क्षिपिश्च एतेषां समाहार:त्रसिगृधिधृषिक्षिपि, तस्मात्-त्रसिगृधिधृषिक्षिपे: (समाहारद्वन्द्वः) ।
अन्वय:-सिगृधिधृषिक्षिपेर्धातोर्वर्तमाने क्नुः, तच्छीलादिषु।
अर्थ:-सिगृधिधृषिक्षिपिभ्यो धातुभ्य: परो वर्तमाने काले क्नु: प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु।
उदा०-(त्रसि:) त्रस्नुः । (गृधि:) गृनुः । (धृषि) धृष्णुः । (क्षिपि:) क्षिप्नुः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(सिक्षिपे:) त्रसि, गृधि, धृषि, क्षिपि (धातो:) धातुओं से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (क्नुः) क्नु प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो।
उदा०-(त्रसि) त्रस्नुः । उद्विग्न (व्याकुल) रहनेवाला। (गृधि) गृध्नुः । लालच करनेवाला (लालची)। (धृषि) धृष्णुः। धृष्टता करनेवाला (ढीठ)। (क्षिपि) क्षिप्नुः । प्रेरणा करनेवाला।
सिद्धि-(१) त्रस्तुः। यहां त्रसी उद्वेगे' (दि०प०) धातु से इस सूत्र से 'क्नु' प्रत्यय है। नेड्वशि कृति' (७।२।८) से इट् आगम का प्रतिषेध होता है।
(२) गृनुः । यहां गधु अभिकाक्षायाम्' (दि०प०) धातु से इस सूत्र से 'क्नु' प्रत्यय है। 'क्नु' प्रत्यय के कित् होने से 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७१३ १८६) से प्राप्त लघूपध गुण का विडति च' (१।१।५) से प्रतिषेध होता है।
(३) धृष्णुः । यहां निधृषा प्रागल्भ्ये' (स्वा०प०) धातु से इस सूत्र से क्नु' प्रत्यय है। पूर्ववत् प्राप्त गुण का प्रतिषेध होता है। रषाभ्यां नो ण: समानपदें' (७।४।१) णत्व होता है।
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