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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (भुव:) भू (धातो:) धातु से परे (च) भी (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (इष्णुच्) इष्णुच् प्रत्यय होता है, यदि भू धातु का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो।
उदा०-भविष्णुः । सत्तावाला।
सिद्धि-भविष्णुः । यहां भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'इष्णुच्' प्रत्यय है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से 'भू' को गुण और एचोऽयवायाव:' (६।१।७५) से 'अव् आदेश होता है। क्स्नुः (ग्स्नुः)
(१) ग्लाजिस्थश्च स्नुः।१३६ । प०वि०-ग्ला-जि-स्थ: ५।१ च अव्ययपदम्, स्नु: ११ ।
स०-ग्लाश्च जिश्च स्थाश्च एतेषां समाहारो ग्लाजिस्थम्, तस्मात्-ग्लाजिस्थ: (समाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-छन्दसि इति निवृत्तम् । भुव इत्यनुवर्तते । अन्वय:-ग्लाजिस्थो भुवश्च धातोर्वर्तमाने क्स्नु:, तच्छीलादिषु।
अर्थ:-ग्लाजिस्थाभ्यो भुवश्च धातो: परो वर्तमाने काले क्स्नु: प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कर्तृषु।
उदा०- (ग्ला:) ग्लास्नुः । (जि:) जिष्णुः । (स्था) स्थास्नुः । (भू:) भूष्णुः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(ग्लाजिस्थ:) ग्ला, जि, स्था (च) और (भुव:) भू (धातोः) धातु से परे (वर्तमाने) वर्तमानकाल में (क्स्नुः) क्स्नु-प्रत्यय होता है, यदि इन धातुओं का कर्ता (तच्छील०) तच्छीलवान्, तद्धर्मा और तत्साधुकारी हो।
उदा०-(ग्ला) ग्लास्तुः । ग्लानि करनेवाला । (जि) जिष्णुः । जीतनेवाला। (स्था) स्थास्नुः । ठहरनेवाला। (भू) भूष्णुः । सत्तावाला।
सिद्धि-(१) ग्लास्तुः । यहां ग्लै हर्षक्षये' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'रस्नु' प्रत्यय है। 'आदेच उपदेशेऽशिति' (६।१।४४) से 'ग्लै' धातु को 'आत्त्व' होता है।
(२) स्थास्नुः । यहां छा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से क्स्नु' प्रत्यय है। यह प्रत्यय वस्तुत: रस्तु' है। खरिच' (८१३१५४) से ग को चर् क होगया है, अत: ग का श्रवण नहीं होता है। 'रस्तु' प्रत्यय के गित्' होने से यहां घुमास्थागापाजहातिसां हलि' (६।४।६६) से स्था धातु को ईत्व नहीं होता है।
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