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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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'ऋदुशनस् ०' (७।१।९४) से कर्तृ के 'ऋ' को 'अनङ्' आदेश, 'अपतृन्तृच्०' (६ । ४ 1११) से तृन्नन्त नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ, 'हल्ङ्याब्भ्यो० ' ( ६ |१| ६६ ) से 'सु' का लोप और 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (८ 1२ 1७ ) से 'न्' का लोप होता है।
(२) वदिता। यहां 'वद व्यक्तायां वाचिं (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'तृन्’ प्रत्यय है। 'आर्धधातुकस्येवलादे:' ( ७/२/३५ ) से 'इट्' आगम होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(३) मुण्डयितारः । मुण्डि+तृन् । मुण्डि+इट्+तृ । मुण्डे+इ+तृ । मुण्डयितृ+जस् । मुण्डयितार् + अस् । मुण्डयितारः ।
यहां प्रथम 'मुण्ड' शब्द से 'मुण्डमिश्रश्लक्षण०' (३ । १ । २१) से णिच् प्रत्यय होता है । णिजन्त 'मुण्डि' धातु से इस सूत्र से 'तृन्' प्रत्यय है। यहां 'ऋतो ङिसर्वनामस्थानयो:' (७ 1३ 1११०) से गुण और 'अप्तन्तृच्०' (६ । ४ । ११) से उपधा को दीर्घ होता है। (४) अपहर्तारः । यहां 'अप' उपसर्गपूर्वक 'हृञ् हरणे' (भ्वा०3०) धातु से इस सूत्र से 'तृन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(५) गन्ता । यहां 'गम्लृ गतौं' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'तृन्' प्रत्यय है । शेष कार्य पूर्ववत् है । 'कर्ता कटान् देवदत्तः' इत्यादि प्रयोगों में 'कर्तृकर्मणोः कृति ' (२ । ३ । ६५) से कर्म में षष्ठीविभक्ति प्राप्त होती है उसका 'न लोकाव्यय० ' (२।३।६९ ) से प्रतिषेध होकर 'कर्मणि द्वितीया' (२/३/२) से द्वितीया विभक्ति होती है। 1
विशेष - अनुवृत्ति- 'वर्तमानें' पद की अनुवृत्ति 'उणादयो बहुलम्' (३ । ३ 1१) तक है। और 'तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु' पद की अनुवृत्ति 'भ्राजभ्रास०' (३1२1१७७) तक है। अत: अनुवृत्ति सन्दर्भ में इनकी अनुवृत्ति पुन: पुन: नहीं दिखाई जायेगी। इष्णुच् -
(१) अलङ्कृनिराकृञ्प्रजनोत्पचोत्पतोन्मदरुच्यपत्रपवृतुवृधुसहचर इष्णुच् । १३६ ।
प०वि०-अलङ्कृञ्-निराकृञ् - प्रजन - उत्पच- उत्पत- उन्मद-रुचिअपत्रप - वृतु- वृधु-सह-चरः ५ ।१ इष्णुच् १ । १ ।
स०-अलङ्कृञ् च निराकृञ् च प्रजनश्च उत्पचश्च उत्पतश्च उन्मदश्च रुचिश्च अपत्रपश्च वृतुश्च वृधुश्च सहश्च चर् च एतेषां समाहारः-अलङ्कृञ्॰चर, तस्मात् - अलङ्कृञ्चरः ( समाहारद्वन्द्वः ) | अन्वयः - अलङ्कृञादिभ्यो धातुभ्यो वर्तमाने इष्णुच् तच्छीलादिषु ।
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