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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
सिद्धि-मुण्डयमानाः । मु नुम् ड् । मुण्ड्+ णिच् । मुण्ड् + इ । मुण्डि+चानश् । मुण्डि + शप् + आन । मुण्डि+अ+मुक्+आन । मुण्डे + अ + म् +आन । मुण्डयमान+जस् ।
मण्डयमानाः ।
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यहां ताच्छील्य अर्थ में वर्तमानकाल में मुडि मार्जने' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'चानश्' प्रत्यय है। यहां प्रथम 'इदितो नुम् धातो:' (७।१।५८) से 'नुम्' आगम और 'सत्यापपाश०' (३।१।२५ ) से णिच्' प्रत्यय होता है। णिजन्त 'मुण्डि' धातु से 'चानश्' प्रत्यय करने पर 'कर्तरि शप्' (३ 1१/६८) से 'शप्' विकरण- प्रत्यय और 'आने मुक्' (७।२।८२) से 'मुक्' आगम होता है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से 'मुण्ड' धातु को गुण और 'एचोऽयवायाव:' ( ६ | १/७५) से 'अय्' आदेश होता है। (२) भूषयमाणा: । 'भूष अलङ्कारे' (चु०प०) धातु से पूर्ववत् ।
(३) पर्यस्यमानाः। यहां परि उपसर्गपूर्वक 'असु क्षेपणे' (दि०प०) धातु से इस सूत्र से चानश् प्रत्यय है । 'दिवादिभ्यः श्यन्' (३ । १ । ६९) से 'श्यन्' विकरण-प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(४) वहमानाः | यहां 'वह प्रापणे' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'चानश्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(५) निघ्नाना:। यहां नि-उपसर्गपूर्वक हन् हिंसागत्यो:' (अ०प०) से इस सूत्र से चानश् प्रत्यय है। 'गमहनजन० ' ( ६ । ४ ।९८) से हन् धातु की उपधा का लोप और 'हो हन्तेगिनेषु' (७/३/५७ ) से ह् को कुत्व घ् होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । (६) पचमानाः | यहां डुपचष् पाके' (भ्वा०3०) धातु से इस सूत्र से 'चानश्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
शतृ
(१) इङ्घार्योः शत्रकृच्छ्रिणि ॥ १३० ॥ प०वि०-इङ्-धार्योः ६।२ ( पञ्चम्यर्थे ) शतृ १ । १ ( लुप्तविभक्तिकं पदम्) अकृच्छ्रिणि ७।१ ।
सo - इङ् च धारिश्च तौ - इङ्घारी, तयो:- इङ्घार्योः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । कृच्छ्रम्= दुःखम् । न कृच्छ्रमिति अकृच्छ्रम्, अकृच्छ्रं विद्यते यस्य स:-अकृच्छ्री । 'अत इनिठनौ' (५।२।११५) इति तद्धित इनिः प्रत्ययः ।
अनु० - वर्तमाने इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः-इङ्ङ्घारिभ्यां धातुभ्यां वर्तमाने शतृ, अकृच्छ्रिणि कर्तरि ।
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