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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
श्नम्' (३।१।७८) से 'श्नम्' विकरण- प्रत्यय, 'इनसोरल्लोप:' (६ । ४ । १११) से 'श्नम्' के 'अ' का लोप, 'नश्चापदान्तस्य झलि ( ८ | ३ |२४ ) से 'न्' को ' अनुस्वार और 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' ( ८|४|५७) से अनुस्वार को परसवर्ण 'ज्' होता है।
विशेष-साकाङ्क्ष । लक्ष्य और लक्षण का सम्बन्ध होने पर प्रयोक्ता की आकाङ्क्षा होती है। यहां भोजन लक्ष्य और वास लक्षण है। दो क्रियाओं का लक्ष्य-लक्षणभाव सम्बन्ध होने पर प्रयोक्ता साकाङ्क्ष होता है। उसे केवल कश्मीर में वासमात्र स्मरण कराना ही अभिप्रेत नहीं है किन्तु वहां के ओदन- भोजन के स्मरण कराने की भी आकाङ्क्ष (इच्छा) है। लिट्
प०वि०-परोक्षे ७ ।१ लिट् १ । १ । अनु०-भूतेऽनद्यतने इति चानुवर्तते । अन्वयः - परोक्षेऽनद्यतने भूते धातोर्लिट् ।
अर्थः-परोक्षेऽनद्यतने भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः परो लिट् प्रत्ययो
भवति ।
(१) परोक्षे लिट् । ११५ ।
उदा० - स चकार । स जहार । रावणः सीतां जहार ।
आर्यभाषा-अर्थ:-(परोक्षे) इन्द्रियों के विषय से दूर (अनद्यतने) आज को छोड़कर (भूते) भूतकाल अर्थ में विद्यमान (धातोः) धातु से परे (लिट्) लिट्-प्रत्यय होता है। उदा० - स चकार । उसने किया। स जहार । उसने हरण किया। रावणः सीतां जहार । रावण ने सीता का अपहरण किया ।
सिद्धि - चकार । कृ+लिट् । कृ+तिप् । कृ+णल्। कार्+अ। कृ+का+अ । क+का+अ । च+कार् +अ । चकार ।
यहां 'डुकृञ् करणें' (तना० उ० ) धातु से इस सूत्र से परोक्ष, अनद्यतन, भूतकाल में 'लिट्' प्रत्यय है। 'लिट्' के स्थान में 'तिप्तस्झि० ' ( ३/४ /७०) से तिप्' आदेश, 'परस्मैपदानां णल०' (३।४।८२) से तिप्' के स्थान में 'णल्' आदेश होता है। 'अचो ञ्णिति' (७।२1११५) से 'कृ' धातु को वृद्धि होती है। 'द्विवर्चनेऽचिं ' (१1१1५८) से, स्थानिवद्भाव से 'कृ' को लिटि धातोरनभ्यासस्य' ( ६ 1१1८ ) से द्विर्वचन होता है। 'उरत' (७१४/६६) से अभ्यास के 'ऋ' को 'अ' आदेश होता है। 'कुहोश्चुः' (७/४/६२) से अभ्यास के 'क्' को चवर्ग 'च्' होता है। ऐसे ही 'हृञ् हरणें' (भ्वा०उ०) धातु से-जहार ।
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