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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
२२१ 'आय' आदेश होता है। द्विवचनेऽचिं' (१।१।५८) से 'आय' आदेश को स्थानिवत् मानकर लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से 'इण्' को ही द्विवचन होता है। 'अभ्यासस्यासवर्णे (६।४ १७६) से अभ्यास के 'इ' को 'इयङ्' आदेश होता है।
(३) अनाश्वान् । अश्+लिट् । अश्+क्वसु। अश्+अश्+वस्। आ+अश्+वस्। आश्वस्+सु । आश्वनुम् स्+स् । आश्वन्स्+स् । आश्वान्स्+०। आश्वान्।
यहां अश् भोजने (क्रया०प०) धातु से इस सूत्र से 'लिट्' प्रत्यय के स्थान में क्वसु' आदेश है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से 'अश्' धातु को द्वित्व, अत आदेः' (७।४।७०) से अभ्यास को दीर्घ होता है। 'वस्वेकाजाद्घसाम्' (७।२।६७) से प्राप्त 'इट' आगम निपातन से नहीं होता है।
न आश्वानिति अनाश्वान् । यहां न (२।२।६) से नञ्तत्पुरुष समास है। नलोपो नञः' (६।३ १७१) से 'नञ्' के न्’ का लोप और तस्मान्नुडचि' (६ ।३ १७२) से 'नुट्' आगम होता है। न+आश्वान् । अ+नुट्+आश्वान्। अ+न्+आश्वान् । अनाश्वान् ।
(४) नाश । यहां पूर्वोक्त 'अश्' धातु से लिट्' प्रत्यय है। पूर्ववत् तिप्' और उसके स्थान में ‘णल' आदेश तथा 'अश्' धातु को द्विर्वचन होता है। अत आदे:' (७।४।७०) से अभ्यास को दीर्घ होता है। न+आश=नाश।
(५) अनूचानः । अनु+व+लिट् । अनु+व+कानच् । अनु+व+वच्+आन। अनु+व+उच्+आन। अनु+उ+उच्+आन। अनु+ऊच्+आन। अनूचान+सु। अनूचानः ।
___ यहां अनु उपसर्गपूर्वक वच् परिभाषणे (अदा०प०) धातु से अथवा बू व्यक्तायां वाचि' (अदा०उ०) धातु के स्थान में 'ब्रुवो वचि:' (२।४।५३) से प्राप्त वच्' धातु से कर्तृवाच्य में 'लिट्' के स्थान में आत्मनेपद कानच् आदेश प्राप्त नहीं होता है, वह इस निपातन से किया जाता है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से 'वच्' धातु को द्वित्व, 'वचिस्वपियजादीनां किति' (६।१।१५) से 'वच्' धातु को सम्प्रसारण, लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् (६।१।१७) से अभ्यास को भी सम्प्रसारण और 'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।९७) से सवर्ण दीर्घ होता है।
(६) अनूवाच । यहां अनु उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त वच्' धातु से 'लिट्' प्रत्यय है। लिट्' के स्थान में पूर्ववत् तिप्' और उसके स्थान में 'गल्' आदेश तथा धातु को द्विवचन होता है। अत उपधाया:' (७।२।१६६) से 'वच्’ को उपधावृद्धि होती है। पूर्ववत् अभ्यास को सम्प्रसारण तथा सवर्णदीर्घ होता है। लुङ्
(१) लुङ् ।११०। प०वि०-लुङ् १।१। अनु०-भूते इत्यनुवर्तते।
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