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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् क्वसु+कानच् (निपातनम्)
(५) उपेयिवाननाश्वाननूचानश्च ।१०६ । प०वि०-उपेयिवान् १।१ अनाश्वान् १।१ अनूचान: ११ च अव्ययपदम्।
अनु०-वा, भूते इति चानुवर्तते।
अर्थ:-उपेयिवान्, अनाश्वान्, अनूचान इत्येते शब्दा अपि विकल्पेन भूते काले निपात्यन्ते।
उदा०-उपेयिवान्, उपेयाय वा। अनाश्वान्, नाश वा। अनूचान:, अनूवाच वा।
आर्यभाषा-अर्थ- (उपेयिवान्०) उपेयिवान्, अनाश्वान्, अनूचान शब्द (च) भी (वा) विकल्प से (भूते) भूतकाल में निपातित है।
उदा०-उपेयिवान, उपेयाय वा । वह समीप गया। अनाश्वान्, नाश वा । उसने भोजन नहीं किया। अनूचान:, अनूवाच वा। उसने अनुकूल कहा।
सिद्धि-(१) उपेयिवान् । उप+इण्+लिट् । उप+इ+क्वसु। उप+इ+इ+वस् । अप+ई+इ+इट्+वस् । उप+ई+य्+इ+वस् । उपेयिवस्+सु । उपेयिवनुम्+स्+स् । उपेयिवन् स्+स्। उपेयिवान्स्+० । उपेयिवान् ।
यहां उप-उपसर्गपूर्वक 'इण् गतौ' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से लिट्' के स्थान में क्वसु' आदेश है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१।८) से 'इण्' धातु को द्वित्व, दीर्घ इण: किति (७/४/६९) से अभ्यास को दीर्घ, अभ्यासदीर्घ विधान के सामर्थ्य से 'अक. सवर्णे दीर्घः' (६।१९७) से सवर्णदीर्घ' का प्रतिषेध होता है। सवर्णदीर्घ का प्रतिषेध होने पर धातु के अनेकाच् होने से वस्वेकाजाद्घसाम्' (७।२।६७) से 'इट्' आगम प्राप्त नहीं होता है, वह निपातन से किया जाता है। अभ्यास का श्रवण और धातु रूप 'इ' को निपातन से 'इणो यण् (४।१।८१) से 'यण' आदेश होता है। शेष कार्य उपसेदिवान् (३।२।१०८) के समान है।
(२) उपेयाय । उप+इण+लिट। उप+इ+तिम्। उप+इ+णल्। उप+ऐ+अ। उप+आय्+अ। उप+इ+5+अ। उप+इयड्+आय्+अ। उप+इय्+आय्+अ। उपेयाय।
यहां उप-उपसर्गपूर्वक इण् गतौं (अदा०प०) धातु से लिट्' प्रत्यय है। तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लिट्' के स्थान में तिप्' आदेश, परस्मैपदानां णलतुस्०' (३।४।८२) से 'तिम्' के स्थान में णल्' आदेश होता है। ‘णल्' प्रत्यय के णित्' होने से 'अचो गिति' (७।२।१५५) से 'इण्' धातु को वृद्धि और एचोऽयवायाव:' (६।१।७५) से For Private & Personal Use Only
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