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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः उदा०-(सद) उपसेदिवान् (क्वसु)। उपसेदिवान् कौत्स: पाणिनिम् । कौत्स पाणिनिमुनि के पास गया। उपससाद (लिट्) । (वस्) अनूषिवान् । अनूषिवान् कौत्स: पाणिनिम् । कौत्स पाणिनिमुनि के अनुशासन में रहा। अनूवास (लिट्)। (च) उपशुश्रुवान् । उपशुश्रुवान् कौत्स: पाणिनिम् । कौत्स ने पाणिनिमुनि के सामीप्य में व्याकरणशास्त्र का श्रवण किया। उपशुश्राव (लिट)।
_सिद्धि-(१) उपसेदिवान् । उप+सद्+लिट् । उप+सद्+क्वसु । सद्+सद्+इट्+वस् । उप+o+से+इ+वस्। उपसेदिवस्+सु। उपसेदिव नुम्स्+स्। उपसेदिवान् स्+स् । उपसेदिवान्।
यहां उप-उपसर्गपूर्वक पद्लु विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से लिट्' के स्थान में क्वसु' आदेश है। अत एकहलमध्ये०' (६।४।१२०) से सद्' के 'अ' को 'ए' आदेश और अभ्यास का लोप, वस्वेकाजाद्घसाम्' (७।२।६७) से 'इट' आगम, उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७।११७०) से नुम् आगम, 'सान्तमहत: संयोगस्य' (६।४।१०) से दीर्घ, हल्डयाब्भ्यो०' (६।१।६६) से सु-लोप और संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से संयोगान्त स्' का लोप होता है।
(२) उपससाद । यहां उप-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त सद्' धातु से इस सूत्र से विकल्प पक्ष में लिट्' प्रत्यय है। तिप्' के स्थान में परस्मैपदानां णल०' (३।४।८२) से 'णल्' आदेश, लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।११८) से सद्' धातु को द्वित्व और 'अत उपधाया:' (७।२।१६६) से उपधावृद्धि होती है।
(३) अनूषिवान् । यहां अनु उपसर्गपूर्वक वस निवासे' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'लिट्' के स्थान में क्वसु' आदेश है। क्वसु' प्रत्यय के कित्' होने से वचिस्वपियजादीनां किति' (६।१।१५) से वस्' धातु को सम्प्रसारण, 'लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्' (६।१।१७) से 'वस्' धातु के अभ्यास को भी सम्प्रसारण होता है। शासिवसिघसीनां च' (८।३।६०) से षत्व होता है।
(४) अनूवास । यहां अनु उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'वस्' धातु से इस सूत्र से 'लिट्' प्रत्यय है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१।८) से 'वस्’ को द्वित्व, पूर्ववत् सम्प्रसारण और 'अत उपधायाः' (७।२।१६६) से वस्' को उपधावृद्धि होती है।
(५) उपशुश्रुवान् । यहां उपसर्गपूर्वक श्रु श्रवणे' (स्वा०प०) धातु से इस सूत्र से लिट्' प्रत्यय के स्थान में क्वसु' आदेश होता है। शेष कार्य उपसेदिवान' के समान है।
(६) उपशुश्राव । यहां उप-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'श्रु' धातु से 'लिट्' प्रत्यय है। लिटि धातोरनभ्यासस्य (६।१८) से 'श्रु' धातु को द्वित्व और 'अचो मिति (७।२।११५) से 'श्रु' धातु को वृद्धि होती है। शेष कार्य उपससाद' के समान है।
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