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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि - (१) राजयुध्वा । यहां 'राजन्' कर्म उपपद होने पर 'युध सम्प्रहारे (दि०आ०) धातु से इस सूत्र से 'क्वनिप्' प्रत्यय है। शेष कार्य 'मैरुदृश्वा' (३/२/९४ ) के समान है। यहां णिच् प्रत्यय का अर्थ अन्तभावित है। २१० (२) राजकृत्वा । यहां 'राजन' कर्म उपपद होने पर डुकृञ् करणे' ( तना० उ० ) धातु से इस सूत्र से 'क्वनिप्' प्रत्यय है । 'हस्वस्य पिति कृति तुक्' (६ /१/६९ ) से 'कृ' को तुक् आगम होता है। राजन्+कृ+तुक्+क्वनिप् । राजकृत्वन् + सु । शेष कार्य मेरुदृश्वा' ( ३/२/९४) के समान है। क्वनिप् (३) सहे च । ६६ । प०वि० - सहे ७ । १ च अव्ययपदम् । अनु० - क्वनिपू, युधिकृञः, भूते इति चानुवर्तते । अन्वयः - सहे उपपदे युधिकृञो धातोः क्वनिप् भूते । अर्थ:-सह-शब्दे उपपदे युधिकृञ्भ्यां धातुभ्यां परः क्वनिप् प्रत्ययो भवति, भूते काले । उदा०- ( युधि ) सह युद्धवानिति सहयुध्वा । (कृञ्) सह कृतवानिति सहकृत्वा । आर्यभाषा - अर्थ - (सहे) सह शब्द उपपद होने पर ( युधिकृञः ) युध् और कृञ् (धातोः) धातु से परे (क्वनिप् ) क्वनिप् प्रत्यय होता है (भूते) भूतकाल में । उदा०- - (युधि ) सह युद्धवानिति सहकृत्वा । साथ लड़नेवाला । (कृञ्) सह कृतवानिति सहकृत्वा । साथ कार्य करनेवाला । इस सिद्धि-सहयुध्वा। यहां 'सह' शब्द उपपद होने पर पूर्वोक्त युध्' धातु से सूत्र से 'क्वनिप्' प्रत्यय है। शेष कार्य 'मेरुदृश्वा' (३ । २।९४) के समान है। ऐसे ही - सहकृत्वा । ड: (१) सप्तम्यां जनेर्डः । ६७ । प०वि०-सप्तम्याम् ७।१ जनेः ५ ।१ ड: १।१ । अनु- भूते इत्यनुवर्तते । अन्वयः-सप्तम्यामुपपदे जनेर्धातोर्डो भूते । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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