________________
तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
૧૬૬ उदा०-उष्ट्र इव क्रोशतीति उष्ट्रकोशी। ध्वाङ इव रौतीति ध्वाङ्करावी।
आर्यभाषा-अर्थ-(उपमाने) उपमानवाची (कीरे) कर्ता (सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (धातो:) धातु से (णिनि:) णिनि-प्रत्यय होता है।
उदा०-उष्ट्र इव क्रोशतीति उष्ट्रकोशी। उष्ट्र के समान रोनेवाला। ध्वाङ्क्ष इव रौतीति ध्वाक्षरावी। ध्वाक्ष-कौवे के समान शब्द करनेवाला।
सिद्धि-(१) उष्ट्रकोशी। यहां उपमानवाची कर्ता उष्ट्र' शब्द उपपद होने पर क्रुश आहाने रोदने च' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से णिनि' प्रत्यय। पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से क्रुश्' धातु को लघूपध गुण होता है। शेष कार्य उष्णभोजी' के समान है।
(२) ध्वाक्षरावी। यहां उपमानवाची कर्ता 'ध्वाङ्क्ष' शब्द उपपद होने पर हे शब्दे' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से णिनि' प्रत्यय है। 'अचो णिति' (७।२।११५) से 'ह' धातु को वृद्धि होती है। शेष कार्य उष्णभोजी' के समान है। णिनिः
(३) व्रते।। प०वि०-व्रते ७।१। अनु०-सुपि, णिनिरिति चानुवर्तते । अन्वय:-सुप्युपपदे धातोणिनिव्रते। अर्थ:-सुबन्ते उपपदे धातोर्णिनि: प्रत्ययो भवति, व्रते गम्यमाने।
उदा०-स्थण्डिले शयितुं व्रतं यस्य स:-स्थण्डिलशायी। अश्राद्धं भोक्तुं व्रतं यस्य स:-अश्राद्धभोजी । ब्रह्मणि चरितुं व्रतं यस्य स:-ब्रह्मचारी।
आर्यभाषा-अर्थ- (सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (धातो:) धातु से (णिनिः) णिनि-प्रत्यय होता है, यदि वहां (व्रते) व्रत अर्थ प्रकट होता हो।
उदा०-स्थण्डिले शयितुं व्रतं यस्य सः-स्थण्डिलशायी। स्थण्डिल-चबूतरे पर शयन का व्रत करनेवाला (तपस्वी)। अश्राद्धं भोक्तुं व्रतं यस्य स:-अश्राद्धभोजी। श्राद्ध का भोजन न करनेवाला। ब्रह्मणि चरितुं व्रतं यस्य स:-ब्रह्मचारी । ब्रह्म-वेद में विचरण का व्रत करनेवाला, ब्रह्मचारी।
सिद्धि-(१) स्थण्डिलशायी। यहां स्थण्डिल' सुबन्त उपपद होने पर शीङ् स्वप्ने (अदा०आ०) धातु से इस सूत्र से णिनि' प्रत्यय है। 'अचो णिति (७।२।११५) से 'शीङ्' धातु को वृद्धि होती है। शेष कार्य उष्णभोजी' के समान है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org