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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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सिद्धि - (१) उखास्रत् । यहां 'उखा' उपपद होने पर 'स्त्र अवस्रंसने' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से क्विप् प्रत्यय है । 'अनिदितां हल उपधाया: क्ङिति' (६/४/२४) से अनुनासिक का लोप और 'वसुस्रंस्रुध्वंस्वनडुहां दः' (८।२।७२) से स्रस्' के स्' को 'द्' आदेश होता है। 'वाऽवसाने' (८/४/५५) से 'द्' को चर् त् होता है।
(२) पर्णध्वत् । यहां पर्ण उपपद होने पर 'ध्वंसु अवस्रंसने' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से 'क्विप्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(३) वाहाभ्रट् । यहां 'वाह' उपपद होने पर 'भ्रंशु अध: पतने' ( दि०प०) धातु इस सूत्र से क्विप्' प्रत्यय है । 'व्रश्चभ्रस्ज०' (८ / २ / ३६ ) से 'भ्रंश्' के श् को ष्, 'झलां जशोऽन्ते (८/२/३९) से ष् को जश् ड् और 'वाऽवसाने' (८/४/५५ ) से ड् को चर् टू होता है। 'अन्येषामपि दृश्यते' (६ | ३ |१३५ ) से वाह को दीर्घ होता है। कः + क्विप्
(२) स्थः क च । ७७ ।
प०वि०-स्थः ५।१ क १ । १ ( लुप्तविभक्तिको निर्देश:) च
अव्ययपदम् ।
अनु० - सुपि, क्विप् इति चानुवर्तते । अन्वयः - स्थो धातोः कः क्विप् च ।
अर्थ:-सुबन्ते उपपदे सोपसर्गाद् निरुपसर्गाच्च स्था- धातोः परः कः क्विप् च प्रत्ययो भवति ।
उदा०- (क: ) शं तिष्ठतीति शंस्थ: । (क्विप्) शं तिष्ठतीति शंस्था: ।
आर्यभाषा - अर्थ - (सुपि ) सुबन्त उपपद होने पर सोपसर्ग और निरुपसर्ग (स्थः) स्था ( धातोः) धातु से परे (क) क-प्रत्यय (च) और (क्विप्) क्विप् प्रत्यय होता है । उदा०- (क) शं तिष्ठतीति शंस्थ: । (क्विप्) शं तिष्ठतीति शंस्था: । शान्त रहनेवाला ।
सिद्धि- (१) शंस्थ: । यहां 'शम्' अव्यय उपपद होने पर 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ (श्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'क' प्रत्यय है। 'आतो लोप इटि च' (६।४/६४) से 'स्था' के आ का लोप हो जाता है।
(२) शंस्था:। यहां 'शम्' अव्यय उपपद होने पर पूर्वोक्त 'स्था' धातु से इस सूत्र सेक्विप्' प्रत्यय है । वैरपृक्तस्य' (६ 1१ 1६५) 'क्विप्' प्रत्यय के 'वि' का सर्वहारी लोप हो जाता है।
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