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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
उदा०- ( मनिन्) शोभनं शृणातीति सुशर्मा । भलीभांति अविद्या का नाश करनेवाला । ( वनिप् ) प्रातरेतीति प्रातरित्वा । प्रातःकाल प्राप्त होनेवाला सूर्य । ( वनिप् ) विजायते इति विजावा । विविध प्रकार की सृष्टि रचना करनेवाला ईश्वर । अग्रे गच्छतीति अग्रेगावा। आगे चलनेवाला। (विच्) रेषतीति रेट् । हिंसा करनेवाला ।
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सिद्धि-(१) सुशर्मा। यहां 'सु' उपपद होने पर 'शृ हिंसायाम्' (क्रया०प०) धातु से इस सूत्र से 'मनिन्' प्रत्यय है । 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से 'श्रृ' धातु को गुण होता है। शेष कार्य 'सुदामा' के समान है।
(२) प्रातरित्वा । यहां प्रात: उपपद होने पर 'इण् गतौं' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से 'क्वनिप्' प्रत्यय है। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्' (६ |१ |६९) से 'तुक्' आगम होता है । प्रातर्+इ+तुक्+क्वनिप् । शेष कार्य 'सुदामा' के समान है।
(३) विजावा । यहां 'वि' उपपद होने पर 'जनी प्रादुर्भाव (दि०आ०) धातु इस सूत्र से 'वनिप्' प्रत्यय है । 'विड्वनोरनुनासिकस्यात्' (६ । ४ । ४१) से 'जन्' के 'न्' को आकार आदेश होता है। शेष कार्य 'सुदामा' के समान है।
(४) रेट् । यहां रिष हिंसायाम् (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'विच्' प्रत्यय है । 'वैरपृक्तस्य' (६ 1१/६५ ) से 'विच्' के 'वि' का सर्वहारी लोप होता है । 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६ ) से रिष्' धातु को लघूपध गुण होता है । 'झलां जशोऽन्ते (८ 1२ 1३९) से 'ष् ' को जश् ड् और 'वाऽवसाने' (८/४/५५) से ड् को चर् ट् होता है। क्विप्
(१) क्विप् च । ७६ ।
प०वि०-क्विप् प०वि० - क्विप् १ । १ च अव्ययपदम् १ । १ ।
अन्वयः - धातोः क्विप् च ।
अर्थ:-सोपपदेभ्यो निरुपपदेभ्यश्च सर्वेभ्यो धातुभ्यश्छन्दसि भाषायां च क्विप् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-उखाया स्रंसते इति उखास्रत् । पर्णानि ध्वंसते इति पर्णध्वत् । वाहाद् भ्रश्यतीति वाहाभ्रट् ।
आर्यभाषा - अर्थ - (धातोः) सोमपद और निरुपपद सब धातुओं से छन्द और भाषा में (क्विप्) क्विप् प्रत्यय (च) भी होता है।
उदा०-उखाया: स्रंसते इति उखास्रत् । उखा (हण्डिया) से गिरनेवाला पदार्थ । पर्णानि ध्वंसते इति पर्णध्वत् । पत्तों को नष्ट करनेवाला । वाहाद् भ्रश्यतीति वाहाभ्रट् । वाह = अश्व आदि से गिरनेवाला ।
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