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________________ ૧૬૫ तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः । (२) अश्वत्थामा। यहां 'अश्व' उपपद होने पर छा गतिनिवृत्तौ' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'मनिन्' प्रत्यय है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् (६।३।१०७) से स्था' के स्’ को त्' आदेश होता है। शेष कार्य सुदामा' के समान है। (३) सुधीवा। यहां 'सु' उपपद होने पर डुधाञ् धारणपोषणयो:' (जु०उ०) धातु से इस सूत्र से क्वनिप्' प्रत्यय है। सु+धा+क्वनिम्। घुमास्था०' (६।४।६६) से 'धा' को ईत्व होता है। शेष कार्य सुदामा के समान है। ऐसे ही- 'पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से-सुपीवा। (४) भूरिदावा । यहां 'भूरि' उपपद होने पर डुदान दाने (जु०प०) धातु से इस सूत्र से वनिप्' प्रत्यय है। शेष कार्य सुदामा' के समान है। ऐसे ही 'पा' धातु से-घृतपावा। (५) कीलालपा: । यहां कीलाल' उपपद होने पर पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'विच्' प्रत्यय है। वरपक्तस्य (६।१।५५) से विच्' प्रत्यय के वि' का सर्वहारी लोप हो जाता है। (६) शुभंयाः। यहां 'शुभ' कर्म उपपद होने पर या प्रापणे (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से विच्' प्रत्यय है। 'वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति' से द्वितीया-विभक्ति का अलुक् है। मनिन्+क्वनिप्+वनिप्+विच् (३) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते।७५। प०वि०-अन्येभ्य: ५।३ अपि अव्ययपदम्, दृश्यन्ते क्रियापदम् । अनु०-विच्, मनिन्क्वनिब्वनिप इति चानुवर्तते । अन्वय:-अन्येभ्योऽपि धातुभ्यो मनिन्क्वनिब्वनिपो विच्च दृश्यन्ते। अर्थ:-अन्येभ्य:=आकारान्तभिन्नेभ्योऽपि धातुभ्यो मनिन्-क्वनिप्वनिपो विच्च प्रत्यया दृश्यन्ते। उदा०-(मनिन्) शोभनं शृणातीति सुशर्मा। (वनिप्) प्रातरेतीति प्रातरित्वा। (वनिप्) विजायते इति विजावा। अग्रे गच्छतीति अग्रेगावा। (विच्) रेषतीति रेट् । रेडसि पर्णं नयेः। ___आर्यभाषा-अर्थ-(अन्येभ्यः) आकारान्त से भिन्न (धातो:) धातुओं से (अपि) भी (मनिन्क्वनिब्वनिप:) मनिन्, क्वनिप, वनिप् और (विच्) विच्-प्रत्यय (दृश्यन्ते) दिखाई देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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