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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् __उदा०-अर्धं भजते इति अर्धभाक् । प्रभजते इति प्रभाक् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (उपसर्गेऽपि) सोपसर्ग और निरुपसर्ग (भज:) भज् (धातो:) धातु से परे (ण्वि:) ण्वि-प्रत्यय होता है।
उदा०-अर्धं भजते इति अर्धभाक् । आधा भाग प्राप्त करनेवाला। प्रभजते इति प्रभाक् । अधिक भाग प्राप्त करनेवाला।
सिद्धि-अर्धभाक् । यहां अर्ध सुबन्त उपपद होने पर 'भज सेवायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से ण्वि' प्रत्यय होता है। वरपृक्तस्य' (६।११६५) से वि' का सर्वहारी लोप होता है। अत उपधाया:' (७।२।११६) से 'भज्' को उपधावृद्धि होती है। चो: कु:' (८।२।३०) से 'भाज्' के ज् को कुत्व ग् और वाऽवसाने (८।४।५५) से ग् को चर्व क् होता है। ऐसे ही-प्र उपसर्ग होने पर-प्रभाक् । ण्विः
(२) छन्दसि सहः ।६३ । प०वि०-छन्दसि ७।१ सह: ५।१। अनु०-सुपि, ण्विरिति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि सुप्युपपदे सहो धातोपिवः ।
अर्थ:-छन्दसि विषये सुबन्त उपपदे सह्-धातो: परो ण्विः प्रत्ययो भवति।
उदा०-जलं सहते इति जलाषाट् । तुरान् सहते इति तुराबाट (ऋक्० ३।४८।४)।
आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (सहः) सह् (धातो:) धातु से परे (ण्वि:) ण्वि-प्रत्यय होता है।
उदा०-जलं सहते इति जलाषाट् । जल-सुख-शान्ति का अनुभव करनेवाला। तुरान् सहते इति तुरापाट् । तुर-शीघ्रकारी शत्रुओं का विनाश करनेवाला-इन्द्र।
सिद्धि-जलाषाट् । यहां जल' सुबन्त उपपद होने पर सह मर्षणे' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से 'ण्वि' प्रत्यय है। हो ढः' (८।२।३१) से सह के ह को ढत्व, झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से जश् इ, और वाऽवसाने (८।४।५५) से ड् को चर्व ट् होता है। अत उपधाया:' (७।२।११६) से सह' को उपधावृद्धि होती है। 'सहे: साड: स:' (८।३।५६) से साट्' स् को षत्व होता है। अन्येषामपि दृश्यते (६।३।१३५) से दीर्घ होता है।
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