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________________ तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः १८. १ (८/४/५३) से अभ्यास को जश्त्व (द्) होता हैं 'क्विन्प्रत्ययस्य कु:' ( ६ । २ ।६२) से 'ष्' को कुत्व 'ख्', 'झलां जशोऽन्ते' ( ८ 1२ 1३९ ) से 'ख्' को 'ग्' और 'वाऽवसाने ((1४ 144 ) से 'ग्' को क्' होता है। निपातन से अन्तोदात्त स्वर होता है। (३) स्रक् । यहां 'सृज् विसर्गे ( तु०प०) धातु से इस सूत्र से कर्म में क्विन्' प्रत्यय है। निपातन से अम् आगम होता है । पूर्ववत् कुत्व 'ज्' को 'ग्' और चर्त्व 'गु' को 'कू' होता है। (४) दिक् | यहां दिश अतिसर्जने' (तु० उ० ) धातु से इस सूत्र से 'क्विन्' प्रत्यय है । पूर्ववत् 'श्' को कुत्व 'ख्', 'ख्' को जश्त्व 'ग्', 'ग्' को चर्त्व 'क्' होता है। (५) उष्णिक् । यहां उत् उपसर्गपूर्वक 'ष्णिह प्रीतो' (दि०प०) धातु से इस सूत्र सेक्विन्' प्रत्यय है। उत् उपसर्ग के 'त्' का लोप और स्निह के 'स्' को षत्व निपातित है । पूर्ववत् 'ह' को कुत्व घ्, घ् को जश्त्व गु, गु को चर्त्वा क् होता है। (६) प्राङ् । यहां 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'अञ्चु गतिपूजनयो:' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'क्विन्' प्रत्यय है। वेरपृक्तस्य' (६ । १ । ६५ ) से 'वि' का सर्वहारी लोप होता है। 'अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति (६ । ४ । २४) से 'अञ्चु' धातु के 'न्' का लोप ( प्र अच्) । 'उगिदचां सर्वनामस्थाने चाधातो:' ( ७ 1१1७० ) से 'नुम्' आगम (प्र अ नुम् च्+सु) हल्डयाब्भ्यो०' (६।१।६६ ) से 'सु' का लोप, ( प्र अ न् च्+0) 'संयोगान्तस्य लोप:' ( ८1२ 1२३) से 'च्' का लोप ( प्र अन्) 'क्विन्प्रत्ययस्य कु: ' (८/२/६२) से न्' को कुत्व (ङ) होकर प्राङ् रूप सिद्ध होता है। ऐसे ही- प्रति और उत् उपसर्गपूर्वक अञ्चु धातु से - प्रत्यङ् और उदङ् । (७) युङ् । यहां युजिर् योगें' (रुधा०3०) धातु से इस सूत्र से 'क्विन्' और पूर्ववत् उसका सर्वहारी लोप होता है। 'इदितो नुम् धातो:' (७।१।५८) से 'नुम्' आगम (यु नु म् ज्+सु) । पूर्ववत् 'सु' और 'ज्' का लोप होता है। (युन्) क्विन्प्रतययस्य कुः ' (८/२/६२ ) से 'न्' को कुत्व (ङ) होता है - युङ् । (८) क्रुङ् । यहां 'क्रुञ्च गतिकौटिल्याल्पीभवयोः' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'क्विन्' प्रत्यय है । 'अनिदितां हल उपधाया: क्ङिति (६ । ४ । २४) से प्राप्त उपधा- नकार का लोप इस निपातन को साहचर्य से नहीं होता है ( क्रुन् च् + सु ) । पूर्ववत् 'सु' और 'च्' का लोप होकर 'क्विन्प्रत्ययस्य कु:' (८ 1२ 1६२) से 'न्' को कुत्व (ङ्) होता है- क्रुङ् । क्विन्+कञ् (३) त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ् च । ६० । प०वि०-त्यदादिषु ७।३ दृश: ५ | १ अनालोचने ७।१ कञ् १।१ च अव्ययपदम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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