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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
૧૭૬ विशेष-कर्ता- कर्तरि कृत (३।४।६७) से समस्त कृत्' प्रत्यय 'कर्ता' अर्थ में होते हैं, फिर यहां कीर' पद का ग्रहण इसलिये किया गया है कि पूर्व सूत्र से 'करणे' पद की अनुवृत्ति न हो सके।
क्विन्
(१) स्पृशोऽनुदके क्विन्।५८। प०वि०-स्पृश: ५।१ अनुदके ७१ क्विन् १।१। स०-न उदकमिति अनुदकम्, तस्मिन्-अनुदके (नञ्तत्पुरुष:)। अनु०-सुपि इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अनुदके सुप्युपपदे स्पृशो धातो: क्विन्।
अर्थ:-उदकवर्जिते सुबन्ते उपपदे स्पृश्-धातो: पर: क्विन्प्रत्ययो भवति।
उदा०-(स्पृश्) घृतं स्पृशतीति घृतस्पृक् । मन्त्रेण स्पृशतीति मन्त्रस्पृक् । जलेन स्पृशतीति जलस्पृक् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अनुदके) उदक शब्द को छोड़कर (सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (स्पृश:) स्पृश् (धातो:) धातु से परे (क्विन्) क्विन् प्रत्यय होता है।
उदा०-(स्पृश्) घृतं स्पृशतीति घृतस्पृक् । घृत का स्पर्शमात्र करनेवाला (अल्पमात्रा में सेवन करनेवाला)। मन्त्रेण स्पृशतीति मन्त्रस्पृक् । मन्त्रपूर्वक अगस्पर्श करनेवाला-उपासक । जलेन स्पृशतीति जलस्पृक् । जल से अगस्पर्श करनेवाला-उपासक ।
सिद्धि-घृतस्पृक् । यहां घृत' कर्म उपपद होने पर 'स्पृश संस्पर्शने (तुदा०प०) धातु से इस सूत्र से क्विन्' प्रत्यय है। विन्' प्रत्यय के कित् होने से 'पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से प्राप्त लघूपध गुण का विडति च (१।१५) से प्रतिषेध हो जाता है। क्विन् प्रत्ययस्य कु:' (८।२।६२) से 'स्पृश्' के 'श्’ को कुत्व 'ख', 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से 'ख' को 'ग' और 'वाऽवसाने (८।४।५५) से 'ग्' को 'क्' होता है। वरपृक्तस्य' (६।१।६५) से 'वि' का लोप हो जाता है। ऐसे ही-मन्त्रस्पृक् और जलस्पृक् । निपातनं क्विन् च(२) ऋत्विग्दधृदिगुष्णिगञ्चुयुजिक्रुञ्चां च।५६ ।
प०वि०-ऋत्विक-दधृक्-स्रक्-दिक्-उष्णिक्-अञ्चु-युजि-क्रुञ्चाम् ६।३ (पञ्चम्यर्थे) च अव्ययपदम्।
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