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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः तत्-नग्नङ्करणम् । (अन्ध:) अनन्धमन्धं कुर्वन्ति येन तत्-अन्धकरणम्। (प्रिय:) अप्रियं प्रियं कुर्वन्ति येन तत्-प्रियकरणम् ।
आर्यभाषा-अर्थ- (अच्चौ) च्चि' प्रत्यय से रहित किन्तु (च्चि-अर्थेषु) 'च्चि' प्रत्यय के अभूततद्भाव अर्थ में वर्तमान (आढय०प्रियेषु) आढ्य, सुभग, स्थूल, पलित, नग्न, अन्ध, प्रिय (कर्मणि) इन कर्म-कारकों के उपपद होने पर (करणे) करण कारक में (कृजः) कृञ् (धातोः) धातु से (ख्युन्) ख्युन् प्रत्यय होता है।
उदा०- (आढ्य) अनाढ्यमाढ्यं कुर्वन्ति येन तत्-आढ्यङ्करणम्। वह करण साधन जिससे निर्धन को धनवान् बनाते हैं। (सुभग) असुभगं सुभगं कुर्वन्ति येन तत्-सुभगकरणम् । वह साधन जिससे असुन्दर को सुन्दर बनाते हैं। (स्थूल) अस्थूलं स्थूलं कुर्वन्ति येन तत्-स्थूलङ्करणम्। वह साधन जिससे कृश को स्थूल बनाते हैं। (पलित) अपलितं पलितं कुर्वन्ति येन तत्-पलितकरणम् । वह साधन जिससे अपलित को पलित बनाते हैं। पलित-श्वेतकेशी। (नग्न) अनग्नं नग्नं कुर्वन्ति येन तत्-नग्नकरणम् । वह साधन जिससे अनग्न को नग्न बनाते हैं। नग्न-नंगा। (अन्ध) अनन्धमन्धं कुर्वन्ति येन तत्-अन्धकरणम् । वह साधन जिससे सुलक्ष को अन्धा बनाते हैं (अश्रु गैस)। (प्रिय) अप्रियं प्रियं कुर्वन्ति येन तत्-प्रियकरणम् । वह साधन जिससे अप्रिय को प्रिय बनाते हैं, मधुर भाषण ।
सिद्धि-आढ्यकरणम्। यहां आढ्य' कर्म उपपद होने पर 'इकन करणे (तना०उ०) धातु से इस सूत्र से 'ख्युन्' प्रत्यय है। 'अरुर्दिषदजन्तस्य मुम्' (६।३।६५) से मुम्'. आगम, 'युवोरनाको' (७।११) से 'यु' के स्थान में 'अन' आदेश, सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से कृ' को गुण और अकुप्वानुम्व्यवायेऽपि (८।४।२) से णत्व होता है। ऐसे ही-सुभगकरणम्, इत्यादि।
विशेष-च्चि-अर्थ- 'अभूततद्भावे कृभ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि च्वि:' (५ ।४।५०) से अभूत तद्भाव अर्थ में चि' प्रत्यय होता है। यहां च्वि-अर्थ' मात्र का ग्रहण किया गया
और 'अच्वौ' कहकर च्चि-प्रत्यय का प्रतिषेध किया गया है। खिष्णुच्+खुकम्
(१) कर्तरि भुवः खिष्णुच्-खुकौ ।५७ । प०वि०-कर्तरि ७१ भुव: ५।१ खिष्णुच्-खुकजौ १।२। स०-खिष्णुच् च खुकञ् च तौ खिष्णुच्खुकौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-सुपि, आढ्य०प्रियेषु, अच्वि-अर्थेषु, अच्वौ इति चानुवर्तते।
अन्वय:-अच्विषु च्व्यर्थेषु आढ्य०प्रियेषु सुप्सूपपदेषु भुव: कतरि खिष्णुच्खुको।
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