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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः
आर्यभाषा-अर्थ- (मान्बधदान्शानुभ्यः ) मान्, बध, दान् और शान् धातुओं से (परः) परे ( सन्) सन् (प्रत्ययः) प्रत्यय होता है (च) और (आभ्यासस्य ) अभ्यास के विकार को (दीर्घ) दीर्घ होता है।
उदा०-मान्-मीमांसते। वह जानना चाहता है । बध्- बीभत्सते । वह विरूप होता है। दान्-दीदांसते। वह सरल होता है। शान्-शीशांसते । तेज (तीक्ष्ण) करता है। सिद्धि - (१) मीमांसते । मान्+सन्। मान्+मान्+स। म+मान्+स। मि+मान्+स। मी+मां+स | मीमांस | मीमांस+लट् । मीमांस+शप्+त। मीमांस+अ+ते । मीमांसते ।
यहां 'मान पूजायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से सन् प्रत्यय है । 'सन्यङोः ' ( ६ 1१1९ ) से धातु को द्वित्व होता है । 'हस्व:' (७/४/५९) से अभ्यास को ह्रस्व, 'सन्यत:' (७।४।७९) से अभ्यास के अकार को इत्व और इस सूत्र से इ को दीर्घ (ई) होता है। 'मीमांस' की 'सनाद्यन्ता धातव:' ( ३ । १ । ३२ ) से धातु संज्ञा है। इससे वर्तमानकाल में 'वर्तमाने लट्' (३ 1 २ 1 १२३) से लट् प्रत्यय होता है।
(२) बीभत्सते । बध्+सन् । बध्+वध्+स । ब+बध्+स । बि+बध्+स। बी+भत्+स । बीभत्स । बीभत्स+लट् । बीभत्स+शप्+त। बीभत्स+अ+ते। बीभत्सते ।
यहां 'बध बन्धने' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से सन् प्रत्यय है । 'सन्यङोः ' ( ६ 1१1९ ) से धातु को द्वित्व होता है । पूर्ववत् अभ्यास को इत्व और इस सूत्र से इको दीर्घ (ई) होता है। 'एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वो:' ( ८ / २ / ३७ ) से बधू के ब् को भ और 'खरि च' (CI४ /५४) से ध को त् होता है। 'बीभत्स' धातु से पूर्ववत् लट् प्रत्यय है।
(३) दीदांसते । 'दान अवखण्डने ( भ्वा० उ० ) 1
(४) शीशांसते । 'शान अवतेजने' (भ्वा० उ० ) 1
अर्थविशेष- मान्बधदान्शान्भ्यो जिज्ञासावैरूप्यार्जवनिशानेषु सन्निष्यते । मान् बध्, दान् और शान् धातुओं से यथासंख्य जिज्ञासा, वैरूप्य, आर्जव और निशान अर्थों में सन् प्रत्यय होता है।
सन् (इच्छार्थे) -
(३) धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा । ७ । प०वि० - धातोः ५ ।१ कर्मण: ५ । १ समानकर्तृकात् ५ ।१ इच्छायाम् ७ ।९ वा अव्ययपदम् ।
स०-समानः कर्ता यस्य स समानकर्तृकः, तस्मात् - समानकर्तृकात्
(बहुव्रीहिः) ।
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