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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(द्विषत्) द्विषन्तं तापयतीति द्विषन्तप: । (परः) परं तापयतीति परन्तपः।
___आर्यभाषा-अर्थ-(द्विषत्परयोः) द्विषत् और पर (कमणि) कर्म कारक उपपद होने पर (तापे:) तापि (धातो:) धातु से परे (खच्) खच् प्रत्यय होता है।
उदा०-(द्विषत्) द्विषन्तं तापयतीति द्विषन्तप: । द्वेष करनेवाले (शत्रु) को सन्ताप देनेवाला। (पर) परं सन्तापयतीति परन्तपः । पर शत्रु को सन्ताप देनेवाला।
सिद्धि-(१) द्विषन्तपः । यहां द्विषत् कर्म उपपद होने पर णिजन्त तप सन्तापे' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'खश्' प्रत्यय है। 'णेरनिटि' (६।४।५१) से णिच्' का लोप और खचि हस्व:' (६।४।९४) से ताप्' को ह्रस्व (तप) होता है। 'खच्' प्रत्यय के खित्' होने से 'अरुर्दिषदजन्तस्य मुम्' (६।३।६५) से 'द्विषत्' उपपद को 'मुम्' आगम होता है और वह मित्' होने से 'मिदचोऽन्त्यात परः' (१।१।४६) से अन्त्य 'अच्' से परे (द्विष मुम् त्) होता है। संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से 'त्' का लोप, मोऽनुस्वारः' (८।३।२३) से 'म्' को अनुस्वार और अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' (८।४।५७) से अनुस्वार को परसवर्ण (न्) होता है।
(२) परन्तपः । पर कर्म उपपद होने पर पूर्वोक्त तप धातु से पूर्ववत् । खच्
(३) वाचि यमो व्रते।४०। प०वि०-वाचि ७१ यम: ५१ व्रते ७१। अनु०-कर्मणि खच् इति चानुवर्तते। अन्वय:-वाचि कर्मण्युपपदे यमो धातो: खच् व्रते।
अर्थ:-वाचि कर्मणि कारके उपपदे यम्-धातो: पर: खच् प्रत्ययो भवति व्रते गम्यमाने।
उदा०-वाचं यच्छतीति वाचंयम: (व्रती)।
आर्यभाषा-अर्थ-(वाचि) वाक् शब्द (कर्माण) कर्म कारक में उपपद होने पर (यमः) यम् (धातो:) धातु से (खच्) खच् प्रत्यय होता है (व्रते) यदि वहां शास्त्रानुसार व्रत रखना अर्थ प्रकट हो।
उदा०-(वाक्) वाचं यच्छतीति वाचंयमः । वाणी को शास्त्रविधि से नियम में रखनेवाला (व्रती)।
सिद्धि-वाचंयमः । यहां वाक् कर्म उपपद होने पर यम उपरमें' (श्वा०प०) धातु से इस सूत्र से खच्' प्रत्यय है। 'वाचंयमपुरन्दरौ च' (६।३।६७) से 'मुम्' आगम का अभाव और वाक्' शब्द अम्-प्रत्ययान्त (वाचम्) निपातित है।
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