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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आगम होता है। स्त्रीलिङ्ग में 'अजाद्यतष्टाप्' (४।१।४) से टाप्' प्रत्यय होता है। ऐसे ही-नखम्पचा। खश्
(७) विध्वरुषोस्तुदः ।३५। प०वि०-विधु-अरुषो: ७।२ तुद: ५।१।
स०-विधुश्च अरुश्च ते विध्वरुषी, तयो:-विध्वरुषोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-कर्मणि खश् इति चानुवर्तते। अन्वय:-विध्वरुषो: कर्मणोरुपपदयोस्तुदो धातो: खश् ।
अर्थ:-विधावरुषि च कणि कारके उपपदे तुद-धातो: पर: खश् प्रत्ययो भवति।
उदा०-(विधुः) विधुं तुदतीति विधुन्तुदः । (अरु:) अरुषं तुदतीति अरुन्तुदः।
आर्यभाषा-अर्थ-(विध्वरुषोः) विधु और अरु: (कर्माण) कर्म कारक उपपद होने पर (तुद:) तुद् (धातोः) धातु से (खश्) खश् प्रत्यय होता है।
उदा०-(विधु) विधुतुदतीति विधुन्तुदः । विधु-चन्द्रमा को आच्छादित करनेवाला (राहुः)। यहां तुद् धातु आच्छादन अर्थ में है व्यथा अर्थ सम्भव न होने से “अनेकार्था हि धातवो भवन्ति" (महाभाष्यम्)। (अरु:) अरुषं तुदतीति अरुन्तुदः । मर्मस्थल को पीड़ित करनेवाला-रोग।
सिद्धि-(१) विधुन्तुदः । यहां विधु कर्म उपपद होने पर तुद व्यथने (तुदा०प०) धातु से इस सूत्र से 'खश्' प्रत्यय है। 'खश्' प्रत्यय के सार्वधातुक होने से तुदादिभ्यः श:' (३।११७७) से 'श' विकरण-प्रत्यय होता है। 'श' प्रत्यय के सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से 'डित्' होने से 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से प्राप्त लघूपध गुण का विडति च' (१।१।५) से प्रतिषेध होता है। पूर्ववत् मुम्' आगम होता है।
(२) अरुन्तुदः । यहां 'अरुष्' कर्म उपपद होने पर पूर्वोक्त तुद' धातु से इस सूत्र से खश् प्रत्यय है। 'अरुषिदजन्तस्य मुम्' (६।३।६५) से 'मुम्' आगम, 'मिदचोऽन्त्यात परः' (१।१।४६) से अरुष् के उ से परे होता है। संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से 'स्' का लोप, 'मोऽनुस्वारः' (८।३।२३) से 'म्' को अनुस्वार और अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः' (८।४।५७) से अनुस्वार को परसवर्ण (न्) होता है।
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