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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) कूलमुद्वहः । यहां कूल कर्म और उत् उपसर्ग उपपद होने पर वह प्रापणे (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् ‘खश्' प्रत्यय है। कर्तरि श' (३।१।६२) से 'शप्' विकरण प्रत्यय होता है। शेष पूर्ववत्। खश्
(५) वहाभ्रे लिहः ।३२। प०वि०-वहाभ्रे ७१ लिह: ५।१ ।
स०-वहश्च अभ्रश्च एतयो: समाहारो वहाभ्रम्, तस्मिन्-वहाभ्रे (समाहारद्वन्द्वः)।
अनु०-कर्मणि, खश् इति चानुवर्तते। अन्वय:-वहाभ्रे कर्मण्युपपदे लिहो धातो: खश् ।
अर्थ:-वहेऽभ्रे च कर्मणि कारके उपपदे लिह्-धातो: पर: खश् प्रत्ययो भवति।
उदा०-(वह:) वहं लेढीति वहलिह: (गौः)। (अभ्रः) अभ्रं लेढीति अभ्रंलिह: (वायु:)।
आर्यभाषा-अर्थ- (वहाभ्रे) वह और अभ्र (कमणि) कर्म उपपद होने पर (लिह:) लिह धातु से (खश्) खश् प्रत्यय होता है।
उदा०-(वह) वहं लेढीति वहलिह: (गौ:)। वह कंधे को चाटनेवाला (बैल)। (अभ्र) अभं लेढीति अभ्रंलिह: (वायु:)। बादल को छूनेवाला (वायु)।
सिद्धि-वहलिहः । यहां वह' कर्म उपपद होने पर लिह आस्वादने (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से खश्' प्रत्यय है। खश्' प्रत्यय के सार्वधातुक होने से कर्तरि शप (३।१।६२) से 'शप्' विकरण प्रत्यय होता है। 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' (२।४।६२) से 'शप्' का 'लुक्' हो जाता है। 'खश्' प्रत्यय के 'खित्' होने से 'अरुषिदजन्तस्य मुम् (६।३।६७) से 'वह' उपपद को मुम्' आगम होता है। ऐसे ही-अभ्रंलिहः । खश्
(६) परिमाणे पचः।३३। प०वि०-परिमाणे ७१ पच: ५।१ । अनु०-कर्मणि, खश् इति चानुवर्तते। अन्वय:-परिमाणे कर्मण्युपपदे पचो धातो: खश् ।
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