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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
१४६ पर्यायवाची है। (बलि) बलिं करोतीति बलिकरः । बलिदान करनेवाला। (भक्ति) भक्ति करोतीति भक्तिकरः। ईश्वर की भक्ति करनेवाला भक्त। (कर्तृ) कर्तारं करोतीति कर्तकरः । कर्ता को उत्साहित करनेवाला। (चित्र) चित्रं करोतीति चित्रकरः । चित्र बनानेवाला। (क्षेत्र) क्षेत्रं करोतीति क्षेत्रकरः। खेत को उत्तम बनानेवाला किसान। संख्या-(एक) एकं करोतीति एककरः। एक बनानेवाला। (द्वि) द्वे करोतीति द्विकरः । दो बनानेवाला। (त्रि) त्रीणि करोतीति त्रिकरः। तीन बनानेवाला। (जङ्घा) जङ्घां करोतीति जवाकरः । दौड़नेवाला। (बाहु) बाहुं करोतीति बाहुकरः । बाहु से कार्य करनेवाला पुरुषार्थी। (यत्) करोतीति यतकरः। जिस किसी कार्य को करनेवाला। (तत्) तत् करोतीति तत्करः। उसी (निर्धारित) कार्य को करनेवाला। (धनुः) धनुः करोतीति धनुष्करः। धनुष बनानेवाला। (अरु:) अरु: करोतीति अरुष्करः । घाव करनेवाला।
सिद्धि-(१) दिवाकरः । अधिकरणवाची दिवा' उपपद होने पर डुकृञ् करणे (तनाउ०) धातु से 'ट' प्रत्यय होता है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७ ।३।८४) से कृ' को गुण होता है।
(२) भास्करः । यहां भास् के सकार को 'कुप्वोक पौ च' (८।३।४८) से जिह्वामूलीय अथवा विसर्जनीय नहीं होता क्योंकि सूत्र में सकार का उच्चारण किया गया है अथवा 'कस्कादिषु च' (८।३।४८) से सत्व होता है।
(३) कारकरः । कर एव कारः। यहां प्रज्ञादिभ्यश्च' (५।४।३८) से स्वार्थ में 'अण्' प्रत्यय है-कारः।
(४) बहुकरः। यहां संख्या का पृथक् ग्रहण करने से संख्यावाची बहु शब्द का ग्रहण नहीं किया जाता अपितु विपुल अर्थ का ग्रहण किया जाता है।
(५) अहस्करः। यहां 'अहन्' शब्द के न् को रोऽसुपि (८।२।६९) से रेफ और खरवसानयोर्विसर्जनीय:' (८।३।१५) से रेफ को विसर्जनीय तथा अत: कृकमि०' (८।३।४६) से विसर्जनीय को सत्व होता है।
(६) अरुष्करः। यहां 'अरुस्' शब्द के स् को 'नित्यं समासेऽनुत्तरपदस्थस्य' (८।३।४५) से षत्व होता है।
ट:
(७) कर्मणि भृतौ।२२। प०वि०-कर्मणि ७।१ भृतौ ७।१ । भूति: वेतनम्, कर्ममूल्यमित्यर्थः । अनु०-कर्मणि, कृञः, ट इत्यनुवर्तते। अन्वय:-कर्मणि कर्मण्युपपदे कृञो धातोष्टो भृतौ।
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