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________________ तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः १४५ सिद्धि-भिक्षाचरः। यहां भिक्षा सुबन्त उपपद होने पर चर गतिभक्षणयोः' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'ट' प्रत्यय है। ऐसे ही-सेनाचर: और आदायचरः। विशेष-धातु अर्थ-पाणिनीय धातुपाठ में जो धातुओं के अर्थ बतलाये गये हैं वे केवल उदाहरणमात्र हैं “अनेकार्था हि धातवो भवन्ति” (महाभाष्यम्)। ट: (३) पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सर्तेः।१८। प०वि०-पुर:-अग्रत:-अग्रेषु ७।३ सर्ते: ५ ।१ । स-पुरश्च अग्रतश्च अग्रे च ते-पुरोऽग्रतोऽग्रय:, तेषु पुरोऽग्रतोऽग्रेषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-सुपि, ट इति चानुवर्तते। अन्वयः-पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सुप्सूपपदेषु सर्तेर्धातोष्टः । अर्थ:-पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सुबन्तेषु उपपदेषु सृ-धातो: परष्ट: प्रत्ययो भवति। उदा०-(पुरः) पुर: सरतीति पुरस्सरः। (अग्रत:) अग्रत: सरतीति अग्रतस्सरः । (अग्रे) अग्रे सरतीति अग्रेसरः । आर्यभाषा-अर्थ-(पुरोऽग्रतोऽग्रेषु) पुरः, अग्रत:, अग्रे (सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (सर्ते:) सृ (धातोः) धातु से परे (ट:). 'ट' प्रत्यय होता है। उदा०-(पुर:) पुर: सरतीति पुरस्सरः । पहले चलनेवाला। (अग्रत:) अग्रत: सरतीति अग्रतस्सरः । आगे से चलनेवाला। (अग्रे) अग्रे सरतीति अग्रेसरः । आगे चलनेवाला। यहां 'अग्रे' शब्द एकारान्त निपातित है। सिद्धि-पुरस्सरः । यहां 'पुर:' उपपद होने पर 'सृ गतौ' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'ट' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से सृ' धातु को गुण होता है। ऐसे ही-अग्रतस्सर: और अग्रेसरः । ट: (४) पूर्वे कर्तरि।१६। प०वि०-पूर्वे ७१ कर्तरि ७।१। अनु०-सुपि, टः, सर्ते: इति चानुवर्तते। अन्वय:-कर्तरि पूर्वे सुप्युपपदे सर्तेर्धातोष्टः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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