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________________ तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः १३७ क: (४) प्रे दाज्ञः।६! प०वि०-प्रे ७।१ दा-ज्ञ: ५।१। स०-दाश्च ज्ञाश्च एतयो: समाहारो दाज्ञम्, तस्मात्-दाज्ञ: (समाहारद्वन्द्व:)। अनु०-कर्मणि, क इति चानुवर्तते। अन्वय:-कणि प्रे-चोपपदे दाज्ञाभ्यां धातुभ्यां पर: क: प्रत्ययो भवति। उदा०-(दा) सर्वं प्रददातीति सर्वप्रद: । (ज्ञा) पन्थानं प्रजानातीति पथिप्रज्ञः। आर्यभाषा-अर्थ- (कर्मणि) कर्म कारक और (प्रे) प्र-उपसर्ग उपपद होने पर (दा-ज्ञ:) दा और ज्ञा धातु से परे (क:) 'क' प्रत्यय होता है। उदा०-(हा) सर्वं प्रददातीति सर्वप्रदः । सर्वस्व प्रदान करनेवाला। (ज्ञा) पन्थानं प्रजानातीति पथिप्रज्ञः । मार्ग को यथावत् जाननेवाला। सिद्धि-सर्वप्रदः । यहां 'सर्व' कर्म और 'प्र' उपसर्ग उपपद होने पर दाने दाने' (जु०उ०) धातु से इस सूत्र से 'क' प्रत्यय है। 'आतो लोप इटि च' (६।४।६४) से 'दा' के आ का लोप होता है। (२) पथिप्रज्ञः। यहां पथिन्' कर्म और प्र' उपसर्ग उपपद होने पर जा अवबोधने' (क्रया०प०) धातु से पूर्ववत् 'क' प्रत्यय है। क: (५) समि ख्यः । प०वि०-समि ७।१ ख्य: ५।१। अनु०-कर्मणि, क इति चानुवर्तते । अन्वय:-कर्मणि समि चोपपदे ख्यो धातो: कः । अर्थ:-कणि कारके सम्-उपसर्गे चोपपदे ख्या-धातो: पर: क: प्रत्ययो भवति। उदा०- (ख्या) गा: संचष्टे इति गोसंख्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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