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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
विशेष- अनुवृत्ति- इससे आगे कर्मणि और सुपि इन दोनों पदों की अनुवृत्ति है किन्तु सकर्मक धातुवाले सूत्रों में कमीण की और शेष सूत्रों में सुपि की अनुवृत्ति की जाती है।
क:
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(३) तुन्दशोकयोः परिमृजापनुदोः । ५ ।
,
प०वि० - तुन्द - शोकयोः ७।२ परिमृज- अपनुदो: ६ २ ( पञ्चम्यर्थे) । स०-तुन्दश्च शोकश्च तौ तुन्दशोकौ तयो: - तुन्दशोकयोः ( इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । परिमृजश्च अपनुद् च तौ परिमृजापनुदौ, तयो:-परिमृजापनुदो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
कः ।
अनु० - कर्मणि क इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - तुन्दशोकयोः कर्मणोरुपपदयोः परिमृजापनुदिभ्यां धातुभ्यां
अर्थ:-तुन्दशोकयोः कर्मणोरुपपदयोर्यथासंख्यं परिमृजापनुदिभ्यां धातुभ्यां परः कः प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(तुन्दः) तुन्दं परिमार्ष्टि इति तुन्दपरिमृज आस्ते । (शोक: ) शोकमपनुदतीति-शोकापनुदः पुत्रः ।
आर्यभाषा-अर्थ- (तुन्दशोकयोः) तुन्द और शोक (कर्मणि) कर्म उपपद होने पर यथासंख्य (परिमृजापनुदोः) परिमृज और अपनुद् (धातो: ) धातुओं से परे (कः) क - प्रत्यय होता है ।
उदा०- (तुन्द) तुन्दं परिमाष्टति - तुन्दपरिमृजः । तुन्द - महोदर का परिमार्जन करनेवाला-आलसी । (शोक) शोकमपनुदतीति-शोकापनुदः । शोक को भगानेवाला
दूर
पुत्र ।
सिद्धि - (१) तुन्दपरिमृजः। यहां तुन्द कर्म उपपद होने पर 'मृष शुद्ध' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से 'क' प्रत्यय है । 'क' प्रत्यय के कित्' होने से 'मृजेर्वृद्धि:' (७/२1११४) से प्राप्त वृद्धि का 'क्ङिति च ' (१1१1५) से प्रतिषेध हो जाता है ।
(२) शोकापनुदः | यहां शोक कर्म उपपद होने पर 'गुद प्रेरणें' (तु०प०) धातु से इस सूत्र से 'क' प्रत्यय है । 'क' प्रत्यय के कित्' होने से 'घुगन्तलघूपधस्य च' (७/३/८६ ) से प्राप्त लघूपध गुण का क्ङिति च ' (१1१14 ) से प्रतिषेध हो
जाता है।
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