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तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः
१३५ आर्यभाषा-अर्थ-(सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (आत:) आकारान्त (धातो:) धातुओं से परे (क:) 'क' प्रत्यय होता है।
उदा०-(पा) द्वाभ्यां पिबतीति द्विपः । सूंड और मुख दोनों से पानी पीनेवाला-हाथी। पादै: पिबतीति पादप: । पांवों से पानी पीनेवाला-वृक्ष। कच्छेन पिबतीति कच्छपः । कच्छ नामक अङ्गविशेष से पानी पीनेवाला-कछुआ।
सिद्धि-द्विप: । यहां द्वि सुबन्त उपपद होने पर 'पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से क' प्रत्यय है। 'आतो लोप इटि च' (६।४।६४) से 'पा' के आ का लोप हो जाता है। ऐसे ही पाद और कच्छ सुबन्त उपपद होने पर 'पा' धातु से-पादप: और कच्छपः।
(ख) स्थः । प०वि०-स्थ: ५।१।। अनु०-सुपि, क इति चानुवर्तते। अन्वय:-सुप्युपपदे स्थो धातो: क: । अर्थ:-सुबन्ते उपपदे स्था-धातो: पर: क: प्रत्ययो भवति । उदा०-(स्था) समे तिष्ठतीति-समस्थः । विषमे तिष्ठतीति विषमस्थः ।
योगविभाग: किमर्थ: ? कर्तरि कारके पूर्वयोग: । अनेन भावेऽर्थेऽपि क: प्रत्ययो यथा स्यात्-आखूनाम् उत्थानमिति-आखूत्थः । शलभानामुत्थानमिति-शलभोत्थः।
__ आर्यभाषा-अर्थ-(सुपि) सुबन्त उपपद होने पर (स्थ:) स्था (धातो:) धातु से (क:) 'क' प्रत्यय होता है।
उदा०-(स्था) समे तिष्ठतीति समस्थः । सम अवस्था में रहनेवाला-योगी। विषमे तिष्ठतीति विषमस्थः । विषम अवस्था में रहनेवाला-साधारण जन।
योग विभाग किसलिये किया है ? पहला सूत्र 'कर्तरि कृत् (३।४।६७) से 'कर्ता' अर्थ में होता है। इस सूत्र से स्था' धातु से 'भाव' अर्थ में भी क' प्रत्यय हो जाये इसलिए यह योगविभाग किया गया है। जैसे-आखूनाम् उत्थानम् आसूत्थः । चूहों का उठाव । शलभानामुत्थानम्-शलभोत्थः । शलभ (टिड्डी) नामक पतंगों का उठाव।
सिद्धि-(१) समस्थ: । अधिकरण सम उपपद होने पर छा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से 'क' प्रत्यय है। 'आतो लोप इटि च' (६।४।६४) से स्था' के आ का लोप हो जाता है। विषम उपपद होने पर-विषमस्थः ।
(२) आसूत्थः । यहां उद: स्थास्तम्भो: पूर्वस्य से स्था' के स् को पूर्वसवर्ण त् होता है। शेष पूर्ववत् है। शलभ उपपद होने पर-शलभोत्थः ।
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