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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा० - कर्तव्यम् । करणीयम् । करना चाहिये ।
सिद्धि- कर्तव्यम् । करणीयम् । यहां 'डुकृञ् करणे' ( तना० उ० ) धातु से 'तव्य' और 'अनीयर्' प्रत्यय इस सूत्र से परे किये गये हैं,; पूर्व नहीं ।
प्रत्ययस्वरपरिभाषा
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आद्युदात्तः
(१) आद्युदात्तश्च | ३ | प०वि० आद्युदात्तः १ । १ च अव्ययपदम् । स०-आदिरुदात्तो यस्य स आद्युदात्त: (बहुव्रीहि: ) ।
अनु० - प्रत्यय इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः -प्रत्ययश्चाद्युदात्तः ।
अर्थ:- यश्च प्रत्ययसंज्ञकः स आद्युदात्तो भवति इत्यधिकारोऽयम्, आ पञ्चमाध्यायपरिसमाप्तेः । यस्य प्रत्ययस्यान्यस्वरो न विहितः स आद्युदात्तो वेदितव्यः ।
उदा० - क॒र्तव्यम् । तैत्तरीय॑म् ।
आर्यभाषा - अर्थ - (च) और (प्रत्ययः) जिसकी प्रत्यय संज्ञा है, वह (आद्युदात्तः) आद्युदात्त होता है। इसका पंचम अध्याय की समाप्ति पर्यन्त अधिकार है । जिस प्रत्यय का कोई अन्य स्वर विधान नहीं किया गया है, उसका आद्युदात्त स्वर होता है ।
उदा०D- कर्तव्यम् । करना चाहिये । तैत्तिरीयम् । तित्तिरि ऋषि के द्वारा प्रोक्त
ग्रन्थ ।
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सिद्ध-(१) क॒र्तव्य॑म्। कृ+तव्य । कर्+तव्य । कर्तव्य+सु । कर्तव्यम् ।
यहां इस सूत्र से तव्य' प्रत्यय आद्युदात्त है । जब एक स्वर निश्चित हो जाता है तब 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' ( ६ | १ | १५२ ) से अन्य अच् अनुदात्त हो जाते हैं। 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' ( ४/८/६५ ) से उदात्त से परे अनुदात्त को स्वरित हो जाता है।
(२) त॒त्ति॒रीय॑म् ॥ तित्तिरि + छण् । तित्तिरि + ईय। तैत्तिर् + ईय । तैत्तिरीय+सु । तैत्तिरीयम् ।
यहां तित्तिरि' प्रातिपदिक से 'तित्तिरिवरतन्तुखण्डिकोखाच्छण्' (४ | ३ |१०२) से 'छण्' प्रत्यय है। यह 'छण्' प्रत्यय इस सूत्र से आद्युदात्त है। शेष स्वरविधि पूर्ववत् है । 'आयनेय०' (७।१।२) से छ' को ईय- आदेश और 'तद्धितेष्वचामादे:' (७ 1२1११७) से आदिवृद्धि होती है।
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