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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः
प्रत्ययसंज्ञाप्रकरणम् प्रत्ययाधिकारः
प्रत्ययः।१। वि०-प्रत्यय: १।१।
अर्थ:-प्रत्यय इत्यधिकारोऽयम्, आ पञ्चमाध्यायपरिसमाप्तेः । प्रत्ययशब्द: संज्ञात्वेनाधिक्रियते। यद् इत ऊर्ध्वं वक्ष्याम: प्रत्ययसंज्ञास्ते वेदितव्याः, प्रकृति-उपपद-उपाधि-विकारागमान् वर्जयित्वा।
उदा०-कर्तव्यम्। करणीयम्।
आर्यभाषा-अर्थ-(प्रत्ययः) पञ्चम अध्याय की समाप्ति पर्यन्त प्रत्यय' का अधिकार है। प्रत्यय शब्द का संज्ञारूप में अधिकार किया गया है। जो इससे आगे कहेंगे उनकी प्रत्यय संज्ञा जाननी चाहिये; प्रकृति, उपपद, उपाधि, विकार और आगम को छोड़कर।
उदा०-कर्तव्यम् । करणीयम् । करना चाहिये। सिद्धि-(१) कर्तव्यम् । कृ+तव्य। कर+तव्य। कर्तव्य+सु। कर्तव्यम्।
यहां डुकृञ् करणे (तना०उ०) धातु से तव्यत्तव्यानीयर:' (३।१।९६) से विहित तव्यत्' की इस सूत्र से प्रत्यय संज्ञा होती है।
(२) करणीयम् । कृ' धातु से पूर्ववत् 'अनीयर्' प्रत्यय है। पराधिकारः
परश्च ।२। प०वि०-पर: ११ च अव्ययपदम्। अनु०-प्रत्यय इत्यनुवर्तते। अन्वय:-प्रत्ययश्च परः।।
अर्थ:-यश्च प्रत्ययसंज्ञक: स धातो: प्रातिपदिकाद् वा परो भवति, इत्यधिकारोऽयम्, आ पञ्चमाध्यायपरिसमाप्तेः ।
उदा०-कर्तव्यम्। करणीयम्।
आर्यभाषा-अर्थ-(च) और (प्रत्यय:) जिसकी प्रत्यय संज्ञा है, वह (पर:) धातु अथवा प्रातिपदिक से परे होता है, इसका भी पञ्चम अध्याय की समाप्ति तक अधिकार है।
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