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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः (अवसा:) अवसाय:। (अवहृ) अवहारः। (लिह्) लेहः। (श्लिष) श्लेष:। (श्वस्) श्वास:।
___आर्यभाषा-अर्थ-(श्याऽऽद्श्व स:) श्या, आकारान्त धातु, व्यध, आनु, संखु, अतीण, अवसा, अवहृ, लिह, श्लिष, श्वस् (धातो:) धातुओं से परे (च) भी (ण:) ण-प्रत्यय होता है।
उदा०-(श्या) अवश्यायः। नीचे की ओर गतिवाला (ओस)। प्रतिश्यायः । प्रतिकूल गतिवाला (जुकाम)। (आत्) दा-दाय: । देनेवाला। (धा) धाय: । धारण-पोषण करनेवाला। (व्यध) व्याधः । ताडना करनेवाला (शिकारी)। (आनु) आस्रावः । सब ओर बहनेवाला। मूत्रातिसार, प्रमेह, संग्रहणी रोग। (संयु) संस्राव: । मिलकर बहनेवाला। अत्याय: । अतिक्रमण करनेवाला । (अवसा) अवसाय: । अवसान करनेवाला। (अवह) अवहारः। अवहरण करनेवाला चोर। (लिह) लेहः । चाटनेवाला। (श्लिष्) श्लेषः । आलिङ्गन करनेवाला। (श्वस्) श्वास: । प्राण लेनेवाला, प्राणी।
सिद्धि-(१) अवश्याय: । यहां अवपूर्वक श्यङ् गतौ' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से ण-प्रत्यय है। 'आतो युक् चिण् कृतो:' (७ ॥३।३३) से युक्' आगम होता है। यहां 'आतश्चोपसर्गे (३।१।१३६) से 'क' प्रत्यय प्राप्त था। उसे हटाने के लिये 'ण' प्रत्यय का विधान किया गया है। प्रति-पूर्वक श्या धातु से-प्रतिश्याय: ।
(२) दाय: । धाय: । इनकी सिद्धि ३।१।१३९ में देख लेवें।
(३) व्याधः । 'व्यध ताडने (दि०प०) धातु से इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय और 'अत उपधायाः' (७।२।११६) से उपधा वृद्धि होती है।
(४) आस्रावः । यहां आपूर्वक त्रु गतौ (भ्वा०प०) से इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय और 'अचो णिति' (७।२।११५) से वृद्धि होती है। सम्पूर्वक त्रु गतौ' (भ्वा०प०) धातु से-संत्रावः।
(५) अत्याय: । अतिपूर्वक 'इण् गतौं' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय और पूर्ववत् वृद्धि होती है।
(६) अवसाय: । अवपूर्वक षोऽन्तकर्मणि' (दि०प०) धातु से इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय, आदेच उपदेशेऽशिति (६।१।४४) से आत्' आदेश और 'आतो युक् चिण्कृतो:' (७।३।३३) से 'युक्' आगम होता है।
(७) अवहारः। अवपूर्वक हृञ् हरणे (भ्वा०उ०) धातु से इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय और पूर्ववत् वृद्धि होती है।
(८) लेहः। लिह आस्वादने (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से 'ण' प्रत्यय और 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से गुण होता है।
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