________________
तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः
११६ अर्थ:-इगुपधेभ्यो ज्ञाप्रीकृभ्यश्च धातुभ्य: पर: क: प्रत्ययो भवति ।
उदा०-इगुपध: (क्षिप्)-विक्षिपतीति विक्षिप: । (लिख्) विलिखतीति विलिख: । (बुध्) बोधतीति बुधः । (ज्ञा) जानातीति ज्ञ: । (प्री) प्रीणातीति प्रिय:। (कृ) किरतीति किरः।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(इगुपधज्ञाप्रीकिर:) इक् उपधावाली और ज्ञा, प्री, कृ (धातोः) धातुओं से परे (क:) 'क' प्रत्यय होता है।
उदा०-इगुपध: (क्षिप्)-विक्षिपतीति विक्षिप: । फैकनेवाला। (लिख) विलिखतीति विलिखः । लिखनेवाला। (बुध) बोधतीति बुधः । समझनेवाला। (ज्ञा) जानातीति ज्ञः। जाननेवाला। (प्री) प्रीणातीति प्रियः । तृप्त करनेवाला अथवा चाहनेवाला। (कृ) किरतीति किरः । फैंकनेवाला।
सिद्धि-(१) विक्षिपः । यहां वि-पूर्वक क्षिप् प्रेरणे' (तु०प०) धातु से इस सूत्र से क' प्रत्यय है। 'क' प्रत्यय के कित्' होने से 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से प्राप्त लघूपध गुण का विङति च' (१।१।५) से प्रतिषेध हो जाता है।
(२) विलिख: । लिख अक्षरविन्यासे' (भ्वा०प०) पूर्ववत् । (३) बुधः । बुध अवगमने' (भ्वा०प०) पूर्ववत् ।
(४) ज्ञः। 'ज्ञा अवबोधने (क्रया०प०) से इस सूत्र से 'क' प्रत्यय है। 'क' प्रत्यय के कित्' होने से आतो लोप इटि च' (६।४।६४) से 'ज्ञा' के 'आ' का लोप हो जाता है।
(५) प्रिय: । यहां प्री तर्पणे कान्तौ च' (क्रया उ०) धातु से इस सूत्र से क' प्रत्यय है। 'अचि अनुधातुभुवा०' (६।४ १७७) से 'इयङ्' आदेश होता है।
(६) किरः । कृ विक्षेपे (तु०प०) धातु से इस सूत्र से क' प्रत्यय है। 'ऋत इद् धातो:' (७।१ ।१००) से इकार आदेश होता है।
(२) आतश्चोपसर्गे।१३६ । प०वि०-आत: ५ १ च अव्ययपदम्, उपसर्गे ७।१। अनु०-क इत्यनुवर्तते। अन्वय:-उपसर्गे आतश्च धातोः कः ।
अर्थ:-उपसर्गे उपपदे आकारान्तेभ्यो धातुभ्य: पर: क: प्रत्ययो भवति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org