________________
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
३. पचादयः । पच । वच । वप । वद । चल । शल । तप । पत । नदट् । भषट् । वस । गरट् । प्लवट् । चरट् । तरट् । चोरट् । ग्राहट् । जर। मर। क्षर। क्षम । सूदट् । देवट् । मोदट् । सेव । मेष । कोप । मेधा । नर्त । व्रण । दर्श। दंश । दम्भ । जारभरा । श्वपच । पचादिराकृतिगणः ।
आर्यभाषा- अर्थ - ( नन्दिग्रहिपचादिभ्यः ) नन्द्यादि, ग्रह्यादि, पचादि धातुओं से परे यथासंख्य (ल्युणिन्यचः) ल्यु, णिनि, अच् प्रत्यय होते हैं।
११८
उदा० - नन्द्यादि से ल्यु- नन्दयतीति नन्दनः । आनन्दित करनेवाला । वाशयतीति वाशन: । चाहनेवाला । गृह्यादि से णिनि- गृह्णातीति ग्राही । ग्रहण करनेवाला । उत्सहते इति उत्साही । उत्साह करनेवाला । पचादि से अच्- पचतीति पचः । पकानेवाला । वदतीति वदः | बोलनेवाला ।
सिद्धि - (१) नन्दन: । नन्द + णिच्+ल्यु । नन्द+अन । नन्दन+सु। नन्दनः ।
यहां णिजन्त 'टुनदि समृद्धों (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से 'ल्यु' प्रत्यय है। 'णेरनिटिं' (६/४/५१) से 'णिच्' का लोप होता है। 'युवोरनाक' (७।१।१९ से 'यु' के स्थान में 'अन' आदेश है। णिजन्त 'वंश कान्तौ ( अदा०प०) धातु से - वाशन: । (२) ग्राही । ग्रह+ णिनि । ग्राह+इन् । गाहिन्+सु । ग्राही ।
यहां 'ग्रह उपादाने' (क्रया०प०) धातु से इस सूत्र से 'णिनि' प्रत्यय है । 'अत उपधायाः' (७ ।२ ।११६) से उपधावृद्धि होती है। उत्पूर्वक 'षह मर्षणे' (भ्वा०आ०) धातु से- उत्साही ।
(३) पच: । पच्+अच् । पच्+अ । पच++सु । पचः ।
यहां 'डुपचष् पाकें' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से 'अच्' प्रत्यय है। 'वद व्यक्ताव्यां वाचि' (भ्वा०प०) धातु से - वदः ।
विशेष - गण - नन्द्यादि, ग्रह्मादि और पचादि धातु पाणिनीय धातुपाठ में गणरूप में पठित नहीं हैं। इन्हें प्रत्ययविधि के लिये संकलित किया गया है।
क:
(१) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः । १३५ ।
प०वि० - इगुपध-ज्ञा-प्री - किर: ५ | १ क: १ । १ ।
स०-इक् उपधा स इगुपध: । इगुपधश्च ज्ञाश्च प्रीश्च कृश्च एतेषां समाहार इगुपधज्ञाप्रीकृ, तस्मात् - इगुपधज्ञाप्रीकिरः (बहुव्रीहिगर्भितेतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org