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________________ तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः ૧૦૬ यहां वच परिभाषणे (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से ‘ण्यत्' प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से वृद्धि और 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' (७ ।२ ।५२) से 'च्' को 'क्' होता है। 'डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) धातु से-पाक्यम् । _ विशेष-अनुबन्ध- ण्यत्-प्रत्यय में प्रकार अनुबन्ध 'अचो णिति' (७।२।११५) से आदि वृद्धि के लिये तथा तकार अनुबन्ध 'तित् स्वरितम् (६।१।१७९) से स्वरित स्वर के लिये है। (२) ओरावश्यके।१२५ । प०वि०-ओ: ५ ।१ आवश्यके ७।१। स०-अवश्यं भाव आवश्यकम् । द्वन्द्वमनोज्ञादिभ्यश्च' (५ ।१।१३२) इति वुञ् प्रत्ययः। अनु०-ण्यत् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-ओर्धातोर्ण्यदाऽऽवश्यके। अर्थ:-उकारान्ताद् धातो: परो ण्यत्-प्रत्ययो भवति, आवश्यकेऽर्थे गम्यमाने । यतोऽपवाद: । उदा०-(लू) लाव्यम्। (पू) पाव्यम् । आर्यभाषा-अर्थ-(ओ:) उकारान्त (धातो:) धातु से परे (ण्यत्) ण्यत्-प्रत्यय होता है (आवश्यके) आवश्यक अर्थ में। उदा०-(लू) लाव्यम् । अवश्य काटने योग्य । (पू) पाव्यम् । अवश्य शुद्ध-पवित्र करने योग्य। सिद्धि-लाव्यम् । यहां तू छेदने' (क्रया उ०) धातु से इस सूत्र से ‘ण्यत्' प्रत्यय है। 'अचो मिति (७।२।११५) से वृद्धि और 'वान्तो यि प्रत्यये' (६।१।७६) से आव्-आदेश होता है। पूञ पवने (क्रया०उ०) धातु से-पाव्यम् । यहां 'अचो यत् (३।१।९७) से 'यत्' प्रत्यय प्राप्त था, उसका यह अपवाद है। (३) आसुयुवपिरपिलपित्रपिचमश्च ।१२६ । प०वि०-आसु-यु-वपि-रपि-लपि-त्रपि चम: ५।१ च अव्ययपदम् । सo-आसुश्च युश्च वपिश्च रपिश्च लपिश्च त्रपिश्च चम् च एतेषां समाहार आसु०चम्, तस्माद्-आसु०चम: (समाहारद्वन्द्वः) । अनु०- ण्यत् इत्यनुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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