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________________ तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः १०७ आपृच्छ्यः । प्रतीषव्यः । ब्रह्मवाद्यम्। भाव्यम् । स्ताव्य: । उपचाय्यपृडम् । (सुवर्णम्) । आर्यभाषा-अर्थ- (छन्दसि ) वेदविषय में (निष्टर्क्स० उपचाय्यपडानि) निष्टर्क्स, देवहूय, प्रणीय, उन्नीय, उच्छिष्य, मर्य, स्तर्या, ध्वर्य, खन्य, खान्य, देवयज्या, आपृच्छ्य, प्रतिणीव्य, ब्रह्मवाद्य, भाव्य, स्ताव्य, उपचाय्यपूड शब्द निपातित हैं। जो यहां सूत्र से सिद्ध न हो उसे निपातन से सिद्ध समझें । उदा०- ऊपर संस्कृत-भाग में देख लेवें । सिद्धि- (१) निष्टर्क्स: । यहां निस् उपसर्गपूर्वक कृती छेदने' (तु०प०) धातु से 'ण्यत्' प्रत्यय है। 'ऋदुपधाच्चाक्लृपिचृतेः' (३|१ | ११० ) से 'क्यप्' प्रत्यय प्राप्त था । 'क' का आद्यन्तविपर्यय (तर्क) होता है। 'निस्' के 'स्' को षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४१) से टुत्व होता है। (२) देवहूय: । यहां देव सुबन्त उपपद होने पर 'हु दानादनयो:' (जु०प०) धातु से 'क्यप्' प्रत्यय है, 'ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्' (६ |१| ६९ ) से प्राप्त 'तुक्' आगम का अभाव है और 'हु' को दीर्घ हो जाता है। (३) प्रणीयः । प्र- उपसर्गपूर्वक 'णीञ् प्रापणे' (भ्वा० उ०) धातु से 'क्यप्' प्रत्यय है । 'अचो यत्' (३ 1१1९७ ) से 'यत्' प्रत्यय प्राप्त था। (४) उन्नीयः । उत्-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'नी' धातु से पूर्ववत् । (५) उच्छिष्यम् । उत्-उपसर्गपूर्वक 'शिष्ट विशेषणे' (रु०प०) धातु से 'क्यप्' प्रत्यय है । 'ऋहलोर्ण्यत' (३ |१| १२४) से 'ण्यत्' प्रत्यय प्राप्त था । 'शश्छोटि (८/४/६६) से 'श्' को 'छ्' और 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८/४/३९) से 'त्' को 'च्' होता है। (६) मर्य: । मृङ् प्राणत्यागें' (तु०आ०) धातु से यत्' प्रत्यय है । 'ऋहलोर्ण्यत्' (३ । १ । १२४) से 'ण्यत्' प्रत्यय प्राप्त था। (७) स्तर्या । स्तृञ् आच्छादने' (स्वा० उ० ) से 'यत्' प्रत्यय है । पूर्ववत् 'ण्यत्' प्रत्यय प्राप्त था। यह निपातन स्त्रीलिङ्ग में ही है। अत: 'अजाद्यतष्टाप्' (४1१1४) से 'टाप्' प्रत्यय होता है । (८) ध्वर्य: । 'ध्वृ हूर्च्छनें' (भ्वा०प०) धातु से 'यत्' प्रत्यय है । पूर्ववत् 'ण्यत्' प्रत्यय प्राप्त था । (९) खन्यः । खनु अवदारणें (भ्वा० उ०) धातु से 'यत्' प्रत्यय है । पूर्ववत् 'ण्यत्' प्रत्यय प्राप्त था । (१०) खान्यः । पूर्वोक्त 'खन्' धातु से 'ण्यत्' प्रत्यय है। (११) देवयज्या | देव सुबन्त उपपद होने पर यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा० उ० ) धातु से 'यत्' प्रत्यय है। पूर्ववत् 'ण्यत्' प्रत्यय प्राप्त था । यह स्त्रीलिङ्ग में ही निपातन है। पूर्ववत् 'टाप्' प्रत्यय होता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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