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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् गृह्यका इमे। गृहीतका इत्यर्थः। (बाह्या) ग्रामगृह्या सेना। ग्रामाद् बहिर्भूता इत्यर्थः । नगरगृह्या सेना। नगराद् बहिर्भूता इत्यर्थः । (पक्ष्य:) वासुदेवगृह्याः। कृष्णपक्षाश्रिता इत्यर्थः । अर्जुनगृह्याः। अर्जुनपक्षाश्रिता इत्यर्थः।
आर्यभाषा-अर्थ-(पदास्वैरिबाह्यापक्ष्येषु) पद, अस्वैरी-परतन्त्र, बाह्या, पक्ष्य अर्थों में (ग्रहे:) ग्रह (धातो:) धातु से परे (क्यप्) क्यप् प्रत्यय होता है।
उदा०- (पदम्) प्रगृह्यं पदम् । वह पद जिसकी प्रगृह्य संज्ञा अष्टा० (१।१।११-१८) की गई है। अवगृह्य पदम्। वह पद जिसका अवग्रह (विच्छेद) किया गया है। जैसे समास वाक्य में राज्ञः पुरुषः' में पदों का अवग्रह है। (अस्वैरी) गृह्यका इमे शुकाः । ये पञ्जर आदि के बन्धन से पराधीन बनाये हुये शुक आदि हैं। यहां 'अनुकम्पायाम् (५ १३ १७६) से कन्-प्रत्यय है। (बाह्या) ग्रामगृह्या सेना। वह सेना जो गांव से बाहर होगई है। नगरगृह्या सेना । वह सेना जो शहर से बाहर होगई है। (पक्ष्य) वासुदेवगृह्याः । वासुदेव (कृष्ण) के पक्ष के लोग। अर्जुनगृह्या: । अर्जुन के पक्ष के लोग।
सिद्धि-प्रगृह्यम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'ग्रह उपादाने (क्रया०प०) धातु से इस सूत्र से क्यम् प्रत्यय होता है। पूर्ववत् सम्प्रसारण और समास होता है। यहां ग्रह धातु का अर्थ असन्निकर्ष है। प्रगृह्य संज्ञा में स्वरों का सन्निकर्ष नहीं होता है। इसके सहाय से शेष पदों की सिद्धि समझ लेवें।
(१४) विभाषा कृवृषोः ।१२० । प०वि०-विभाषा ११ कृ-वृषो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे) । स०-कृश्च वृष् च तौ कृवृषौ, तयो:-कृवृषो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-क्यप् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-कृवृषिभ्यां धातुभ्यां विभाषा क्यप् । अर्थ:-कृवृषिभ्यां धातुभ्यां परो विकल्पेन क्यप् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(कृ) कृत्यम् (क्यप्)। कार्यम् (ण्यत्)। (वृष्) वृष्यम् (क्यप्) । वर्ण्यम् (ण्यत्)।
आर्यभाषा-अर्थ-(कृवृषोः) कृ और वृष् (धातो:) धातु से परे (विभाषा) विकल्प से (क्यप्) क्यप् प्रत्यय होता है।
उदा०-(कृ) कृत्यम् । कार्यम् । करने योग्य। (वृष्) वृष्यम् । वर्ण्यम् । वीर्य सेचन करने के योग्य । बल-वीर्य वर्धक । बरसने योग्य ।
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