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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (४) रुच्य: । रुच+क्यप् । रुच+य। रुच्य+सु । रुच्यः ।
यहां रुच दीप्तौ (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से कर्ता अर्थ में क्यप्' प्रत्यय है। 'खुल्तृचौं' (३।१।१३३) से 'वुल्' अथवा तृच्' प्रत्यय प्राप्त था।
(५) कुप्यम् । गुप्+क्यप् । गुप्+य । कुप्+य । कुप्य+सु । कुप्यम्।
यहां 'गुप् गोपने (भ्वा०प०) 'गुपू रक्षणे' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से क्यप्' प्रत्यय है और निपातन से धातु के 'ग्' को 'क' होता है।
(६) कृष्टपच्या: । कृष्ट+डि+पच्+क्यप् । कृष्ट+पच्+य। कृष्टपच्य+जस्। कृष्टपच्याः।
यहां कृष्ट सुबन्त उपपद होने पर डुपचष् पाके (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से कर्मकर्ता अर्थ में क्यप' प्रत्यय है।
(७) अव्यथ्यः । न+व्यथ्+क्यम् । अ+व्यथ्+य। अव्यथ्य+सु । अव्यथ्यः ।
यहां व्यथ भयसंचलनयोः' (भ्वा०आ०) धातु से इस सूत्र से कर्ता अर्थ में क्यप्' प्रत्यय है। 'वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से 'वुल्' अथवा तृच्' प्रत्यय प्राप्त था। निपातनम् (क्यप्)
(६) भिद्योद्ध्यौ नदे।११५ । प०वि०-भिद्य-उद्ध्यौ १२ नदे ७।१। स०-भिद्यश्च उद्ध्यश्च तौ-भिद्योध्यौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-क्यप् इत्यनुवर्तते। अर्थ:-भिद्य-उद्ध्यौ शब्दौ क्यप्-प्रत्ययान्तौ निपात्येते, नदेऽभिधेये।
उदा०-भिनत्ति कूलमिति भिद्य: (नदी)। उज्झत्युदकमिति उद्ध्यः (नदी)।
आर्यभाषा-अर्थ-(भिद्योद्ध्यौ) भिद्य और उद्ध्य शब्द (क्यप्) क्यप्-प्रत्ययान्त निपातित हैं (नदे) नदी अर्थ में।
उदा०-भिनत्ति कूलमिति भिद्यः । वह नदी जो किनारे को तोड़ती है। उज्झत्युदकमिति उद्ध्यः । वह नदी जो जल को छोड़ती है।
सिद्धि-(१) भिद्य: । भिद्+क्यम् । भिद्+य। भिद्य+सु। भिद्यः ।
यहां भिदिर विदारणे (रुधा०प०) धातु से इस सूत्र से कर्ता अर्थ में क्या' प्रत्यय है। ‘ण्वुल्तृचौं (३।१।१३३) से 'वुल्' अथवा तृच्’ प्रत्यय प्राप्त था। (२) उद्ध्यः । उज्झ्+क्यप् । उज्+य। उद्ध+य। उद्ध्य+सु। उद्ध्यः ।
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