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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः अनु०-क्यप् इत्यनुवर्तते।
अर्थ:-राजसूय-सूर्य-मृषोद्य-रुच्य-कुप्य-कृष्टपच्य-अव्यथ्या: शब्दा: क्यप्-प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते।
उदा०-राजा सूयते यत्र स क्रतु: राजसूयः । सरति, सुवति वा सूर्य: । मृषोद्यम् । रोचतेऽसौ रुच्य: । कुप्यम् । कृष्टे पच्यते इति कृष्टपच्या: । न व्यथते इति अव्यथ्य:।
आर्यभाषा-अर्थ-(राजसूय०अव्यथ्याः) राजसूय, सूर्य, मृषोद्य, रुच्य, कुप्य, कृष्टपच्य, अव्यथ्य शब्द (क्यम्) क्यप् प्रत्ययान्त निपातित हैं।
उदा०-राजसूयः। वह यज्ञ जिसमें किसी को राजा बनाया जाता है। सूर्यः। सूरज। मृषोद्यम् । मिथ्या वचन। रुच्यः । सुन्दर। कुप्यम् । सोना और चांदी से भिन्न धन का नाम । कृष्टपच्या: । हल चलाई हुई भूमि में स्वयं पकनेवाली ओषधियां । अव्यथ्यः । व्यथित न होनेवाला।
सिद्धि-(१) राजसूय। राजन्+सु+सुञ्+क्यप्। राजन्+सु+य। राज+सू+य। राजसूय+सु। राजसूयः।
यहां राजन् सुबन्त उपपद होने पर षुञ् अभिषवें' (स्वा०उ०) धातु से इस सूत्र से क्यप्-प्रत्यय, ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्' (६।१।६९) से प्राप्त तुक्' आगम का अभाव और सु को दीर्घत्व निपातन से होता है।
(१) (क) सूर्यः । सृ+क्यप् । सृ+य। सुर्+य। सूर्+य। सूर्य+सु । सूर्यः ।
यहां सृ गतौं' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से क्यप्' प्रत्यय निपातित है। 'ऋहलोर्ण्यत्' (३।१।१२४) से ण्यत्' प्रत्यय प्राप्त था। 'स' के 'ऋ' को निपातन से उत्व' होता है।
(ख) सूर्यः । सू+क्यम् । सू+रुट्+य । सू+र+य । सूर्य+सु। सूर्यः ।
यहां 'घू प्रेरणे' (तु०प०) धातु से इस सूत्र से क्यप्' प्रत्यय निपातित है। अचो यत्' (३।१।९७) से यत्' प्रत्यय प्राप्त था। सू' धातु को ‘रुट्' आगम निपातन से होता है।
(३) मृषोद्यम्। मृषा+सु+वद्+क्यम्। मृषा+वद्+य। मृषा+उ अ द्+य। मृषा+उ द्+य। मृषोद्य+सु । मृषोद्यम्।
यहां मृषा सुबन्त उपपद होने पर वद व्यक्तायां वाचि' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से नित्य क्या' प्रत्यय होता है। 'वद: सुपि क्या च' (३।१।१०६) से विकल्प से क्यप् प्रत्यय प्राप्त था। वचिस्वपियजादीनां किति (६।१।१५) से 'वद्' को सम्प्रसारण और सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०४) से 'अ' को पूर्वरूप होता है।
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