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________________ ६८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-भृत्यः । भृ+क्यप् । भृ+तुक्+य। भृ+त्+य। भृत्य+सु। भृत्यः । यहां 'भृञ् भरणे' (भ्वा०उ०) धातु से इस सूत्र से असंज्ञा विषय में 'क्यप्' प्रत्यय है। क्यप्' प्रत्यय के पित् होने से 'हस्वस्य पिति कृति तुक्' (६।१।६९) से 'भृ' को तुक्' आगम होता है। (७) मृजेर्विभाषा।११३। प०वि०-मृजे: ५।१ विभाषा ११ । अनु०-क्यप् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-मृजेर्धातोर्विभाषा क्यप् । अर्थ:-मृजेर्धातो: परो विकल्पेन क्यप् प्रत्ययो भवति । उदा०-(मृज्) परिमृज्य: (क्यप्) । परिमार्यः (ण्यत्)। आर्यभाषा-अर्थ-(मृजे:) मृज् (धातो:) धातु से (विभाषा) विकल्प से (क्यप्) क्यप् प्रत्यय होता है। पक्ष में ण्यत् हो जाता है। उदा०-(मृज्) परिमृज्य: (क्यप्)। परिमार्य: (ण्यत्)। परिशोधन करने योग्य । सिद्धि-(१) परिमृज्य: । यहां परि उपसर्गपूर्वक 'मृजूष शुद्धौ' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से क्यप्' प्रत्यय है। क्या प्रत्यय के कित् होने से मृजेर्वृद्धिः' (७।२।११४) से प्राप्त वृद्धि का ङिति च' (१।१।५) से प्रतिषेध हो जाता है। (२) परिमार्य: । परि+मृज्+ण्यत् । परि+मृग्+य। परि+मा+य। परिमार्य+सु । परिमार्यः । ___ यहां परि उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त मृज्' धातु से इस सूत्र विकल्प पक्ष में ऋहलोर्ण्यत् (३।१।१२४) से ण्यत्' प्रत्यय होता है। 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' (७।३।५२) से कुत्व और मृजेर्वृद्धिः' (७।२।११४) से 'मृज्' धातु को वृद्धि होती है। (३) मृज् धातु के ऋदुपध होने से 'ऋदुपधाच्चाक्लृपिघृतेः' (३।१।११०) से नित्य क्यप्' प्रत्यय प्राप्त था, इस सूत्र से विकल्प विधान किया गया है। निपातनम् (क्यप्)(८) राजसूयसूर्यमृषोद्यरुच्यकुप्यकृष्टपच्याव्यथ्याः ।११४। प०वि०-राजसूय-सूर्य-मृषोद्य-रुच्य-कुप्य-कृष्टपच्य-अव्यथ्या: १।३ । स०-राजसूयश्च सूर्यश्च मृषोद्यं च रुच्यश्च कुप्यं च कृष्टपच्याश्च अव्यथ्यश्च ते-राजसूय०अव्यथ्या: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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